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गज़ल ( इश्क़ उम्मीद है)

2122, 1122, 1122, 22/112

सुर्ख़रू शोख़ बहारों सा चहक जाओगे
इश्क़ के बाग़ में आओ तो गमक जाओगे

गर इरादे हुए हैं बर्फ़ से ख़ामोश तो क्या
गर्मी-ए-इश्क़ में आ जाओ दहक जाओगे

इश्क़ की ताब का अंदाज़ा भला है तुमको
इसकी ज़द में ही फ़क़त आओ लहक जाओगे

रौनक-ए-इश्क़ की ताक़त को न ललकारो तुम
ख़ूब ज़ाहिद हो मगर तुम भी बहक जाओगे

इश्क़ ख़ुश्बू है इसे बांधने की ज़िद न करो
इसमें घुल जाओ तो दुनिया में महक जाओगे

इश्क़ के रंग व ख़ुश्बू से मिलोगे जब तुम
नर्म इक फूल की डाली सा लचक जाओगे

इश्क़ उमीद है जलवे में सदा रहता है
दिल में इस लौ को जगा लो तो चमक जाओगे

-- क़मर जौनपुरी

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by amod shrivastav (bindouri) on March 12, 2019 at 3:06pm

आ कमर भाई साहब नमन
अच्छी गजल के लिए आप को बधाई

Comment by Balram Dhakar on February 11, 2019 at 11:00pm

जनाब क़मर साहब, अच्छी ग़ज़ल हुई है। शेर दर शेर के साथ मुबारक़बाद क़ुबूल फ़रमाएं।

सादर।

Comment by क़मर जौनपुरी on January 31, 2019 at 4:24pm

बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम समर कबीर साहब और मोहतरम रवि शुक्ला साहब खूबसूरत इस्लाह और राय के लिए।

Comment by Samar kabeer on January 26, 2019 at 10:44pm

मैं जनाब रवि जी से सहमत हूँ ।

बाक़ी सब ठीक है,न होता तो पहले ही लिख देता ।

Comment by Ravi Shukla on January 26, 2019 at 10:13pm

आदरणीय कमर जौनपुरी साहब बहुत अच्छी गजल आपने कहीं दिली मुबारकबाद पेश करता हूं जब तक समर साहब पुनः इस ग़ज़ल पर हाजिर होते हैं मैं अपना नजरिया पेश करने की इजाजत चाहता हूं ग़ज़ल में मात्रा गिराना स्वीकार्य है यह सुविधा है जहां तक हो सके मिसरो में मात्रा न गिराई जाए तो खूबसूरती बढ़ जाती है लेकिन मात्रा गिरा कर भी गजल कही जाती है और अभी भी कहीं जा रही है यह आप पर निर्भर है कि आप इसे कैसे लेते हैं सादर

Comment by क़मर जौनपुरी on January 24, 2019 at 11:34pm

मोहतरम जनाब समर कबीर साहब आदाब।

बहुत बहुत शुक्रिया इस्लाह के लिए। चहक की जगह महक कर लूं तो ठीक हो जाएगा?

इस ग़ज़ल को बह्र में लाने के लिए बहुत मात्राओं को गिराना पड़ा, क्या यह क्षम्य हैं? इस पर भी रहनुमाई करने की मेहरबानी करें।

सुर्खरू के इस्तेमाल में भी काफी असमंजस में था, क्या यह सही हो पाया है?

बहुत बहुत शुक्रिया आपका एक बार फिर इतनी उम्दा इस्लाह के लिए।

Comment by Samar kabeer on January 24, 2019 at 11:21pm

जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है ,बधाई स्वीकार करें ।

मतले के ऊला मिसरे में 'बहारें' महकती हैं,चहकती नहीं,ग़ौर करें ।

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