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अंतिम संस्कार :लघुकथा:हरि प्रकाश दुबे

“अरे सुनो !”

“अभी अम्मा जाग रहीं है... चुप !”

“बक पगली, कुछ काम की बात है, इधर तो आओ !”

“हां , बोलो !”

अरे ये मूँगफली का ठेला अब बेकार हो गया है, कोई कमाई नहीं रही !”

“काहें, अब का हुआ?!”

अरे, ससुरे सब आतें हैं , थोडा सा कुछ खरीदतें हैं बाकी सब फोड़-फोड़ चबा जातें है, जानती हो ,रोज घाटा उठा रहें हैं हम, और अब देखिये ना मंडी का पैसा भी पूरा नहीं हो पा रहा है, देने को !

“तब! बुधिया के बापू अब का सोच रहें हैं ?”

”अरे बुधिया की अम्माँ, एक दरोगा जी अपने मित्र हैं, कह रहे थे, जगह हम दिलवा देंगे, तुम अंडे का ठेला लगा लो, उस जगह, वो जो देशी शराब की दूकान के सामने है, आधा –आधा रहेगा हिसाब में, का करैं मन तो कर रहा है, हाँ कर दें, तुम बताओ ?”

ना- ना बुधिया के बाबू, कभी ऐसा मत करिएगा, अरे अम्मा क्या सोचेंगी, और अपने संस्कार, अरे बाउजी ने भी कभी ऐसा नहीं सोचा !

“ अरे भाड़ मैं जाएँ तुम्हारी माँ ..और बाऊजी का संस्कार , साला इसने दिया ही क्या है, तुम तो ठहरी गवांर ,हम तो लगायेंगे !”

“अब रोज कमाई, और सब खुश, पर उस अंडे की ठेली ने बुधिया के बाबू को शराब दी, पैसा दिया, और जल्द ही लीवर सिरोसिस !

बुधिया के बापू का आज “अंतिम संस्कार” था !

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by Samar kabeer on December 27, 2018 at 10:18pm

जनाब हरि प्रकाश दुबे जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by विनय कुमार on December 27, 2018 at 6:08pm

बढ़िया रचना है आ हरी प्रकाश दुबे जी, बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by babitagupta on December 27, 2018 at 3:08pm

 व्यक्ति का  चन्द समय के ऐशोआराम के लिए गलत तरीके  से मजबूरी  में किया गया फैसले के दुष्परिणाम को दर्शाती बेहतरीन रचना ।बधाई स्वीकार कीजिएगा, आदरणीय हरिप्रकाश सरजी।

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