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(122 122 122 122)

करोगे कहां तक सबब की वज़ाहत
अंधेरों की कब तक करोगे इबादत

यक़ीं रख के सर को झुकाते रहे हो
दिखाते रहे हो ये कैसी शराफ़त

नहीं ठीक है जो तुम्हारी नज़र में
उसी की ही करते रहे हो वकालत

नई प्रेम नदियां बहा दो जहां में
यहां पर दिखाओ ज़रा सी सख़ावत

भले ख्वाब हों पर हक़ीक़त बनेंगे
मिटेगी यहां नफरतों की रिवायत

.

- नंद कुमार सनमुखानी

- मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on May 5, 2018 at 10:47am

जनाब नंद कुमार जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

'उसी की ही करते रहे हो वकालत'

इस मिसरे में 'ही' शब्द भर्ती का है ।

Comment by Nand Kumar Sanmukhani on May 4, 2018 at 4:37pm
बहुत-बहुत शुक्रिया आ. श्याम नारायण वर्मा जी..
Comment by Shyam Narain Verma on May 4, 2018 at 2:54pm
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।

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