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चुनावी हवा सरसराने लगी है...//अलका 'कृष्णांशी'

122 122 122 122

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सियासत बिसातें बिछाने लगी है
चुनावी हवा सरसराने लगी है...

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जगा फिर से मुद्दा ये पूजा घरों का
दिलों में ये नफरत बढ़ाने लगी है।
चुनावी हवा.....

.

यहाँ बाँट डाला है रंगो में मजहब
बगावत की आंधी सताने लगी है।

.

कहीं नाम चंदन कहीं चाँद दिखता
ये लाशें जमीं पर बिछाने लगी है

.

नही बात होती है अब एकता की

हमारी उमीदें घटाने लगी है
.

क्युँ इन्सां हुआ जानवर से भी बदतर
हमें शर्म ख़ुद से ही आने लगी है
.

ये क्यों मौन बैठे है आदर्शवादी
के मिट्टी वतन की बुलाने लगी है
.

जहाँ झूठे वादों का बहता है दरिया
जमीं बोझ से चरमराने लगी है

.

सियासत बिसातें बिछाने लगी है
चुनावी हवा सरसराने लगी है...

.

मौलिक एवं अप्रकाशित

अलका 'कृष्णांशी'

Views: 806

Comment

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Comment by Samar kabeer on February 4, 2018 at 10:57am

अलका जी आदाब,ग़ज़ल नुमा गीत का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'उम्मीदें अमन की घटाने लगी है'

इस मिसरे में सही शब्द है "अम्न"

'के इंसानियत शर्म खाने लगी है'

इस मिसरे में 'शर्म खाने' का प्रयोग सही नहीं है,'शर्म' खाई नहीं जाती, ग़ौर कीजियेगा ।

Comment by नाथ सोनांचली on February 4, 2018 at 10:36am

आद0 अलका जी सादर अभिवादन।आज के संदर्भ में बेहतरीन रचना, इस प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें

Comment by Mohammed Arif on February 3, 2018 at 10:34pm

आदरणीया अलका जी आदाब,

  1.                         बहुत कटाक्षपूर्ण गीत । हर पंक्ति में तीक्ष्णता का समावेश । आज हर भारतीय के मन में आक्रोश है । गंदी सियासत ने सबकुछ तबाह कर दिया है । दुष्ट कमीनें सियासदाँ देश का खाकर देशवासियों में नफ़रत की दीवारें खड़ी कर रहे हैं । इन दुष्टों से सतर्क रहने की आवश्यकता है । बहुत ही अच्छा गीत । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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