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ग़ज़ल -तरही -2(उनके सोए हुए जज़्बात जगा भी न सकूँ )

(फाइलातुन -फइलातुन -फइलातुन -फइलुन /फेलुन)

आ गया हूँ वहाँ जिस जा से मैं जा भी न सकूँ |
मा सिवा उनके कहीं दिल को लगा भी न सकूँ |

इस तरह बैठे हैं वो फेर के आँखें मुझ से
उनके सोए हुए जज़्बात जगा भी न सकूँ |

मेरी महफ़िल में किसी ग़ैर को लाने वाले
दिल से मजबूर हूँ मैं तुझको जला भी न सकूँ |

फितरते तर्के महब्बत है तेरी यार मगर 
तेरी इस राय को मैं अपना बना भी न सकूँ |

इतना मजबूर भी मुझको न खुदा कर देना
अपने घर बार को इज़्ज़त से चला भी न सकूँ |

अश्क जो हैं मेरी आँखों में दिए दिलबर ने
मैं अगर चाहूं गिराना तो गिरा भी न सकूँ |

वो सितमगर सही तस्दीक़ मगर है दिलबर
उस की फ़ितरत मैं ज़माने को बता भी न सकूँ |

जिस जा -----जिस जगह

( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 26, 2017 at 10:21pm

 जनाब राम बली साहिब , ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया   

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 26, 2017 at 10:20pm

मुहतरम जनाब गिरिराज साहिब , ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया   

Comment by रामबली गुप्ता on September 26, 2017 at 9:19pm
भाई तस्दीक अहमद खान जी एक बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली मुबारक़बाद कुबूल करें।सादर

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2017 at 9:08pm

आदरणीय तस्दीक भाई , बहुत बऍढ़िया गज़ल कही है , शेर दर शेर मुबारकबाद कुबूल कीजिये ।

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 26, 2017 at 10:28am
जनाब दिनेश कुमार साहिब ,आपकी गज़ल में शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 26, 2017 at 10:27am
जनाब महेन्द्र कुमार साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 26, 2017 at 10:26am
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ।मश्वरे का शुक्रिया
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 25, 2017 at 10:26pm

जनाब आशुतोष साहिब , ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया   

Comment by दिनेश कुमार on September 25, 2017 at 8:03pm
उम्दा ग़ज़ल हुई जनाब तस्दीक़ साहब। वाह वाह। सभी अशआर अच्छे लगे।
Comment by Mahendra Kumar on September 25, 2017 at 8:02pm

अच्छी ग़ज़ल है आ. तस्दीक़ जी. ये शेर विशेष रूप से पसन्द आये :

इतना मजबूर भी मुझको न खुदा कर देना 
अपने घर बार को इज़्ज़त से चला भी न सकूँ |

वो सितमगर सही तस्दीक़ मगर है दिलबर
उस की फ़ितरत मैं ज़माने को बता भी न सकूँ |

हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

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