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प्रेम-पचीसी-भाग 4 (प्रीत-पगे दोहे)

प्रेम-पचीसी--भाग 4(प्रीत-पगे दोहे)

पाप कहूँ किसको भला, किसको समझूँ पुन्न ।
मैं जानूँ इतनी गणित, तुम बिन जीवन सुन्न ।। ...1

तुम मोहन की बाँसुरी, मैं राधा का हास ।
साथ तुम्हारा जब मिले, जीवन हो इक रास ।। ...2

दर्शन दे दो साँवरे, तरस रहे हैं नैन ।
मर जाऊँ मैं चैन से, जीती हूँ बेचैन ।।...3

सुध-बुध जी की खो गई, जबसे लागा हेत ।
मैं इक मछली साँवरे, विरहा तपती रेत ।।...4

बरजा तो माना नहीं, अब रोवे दिन-रैन ।
नैन मिलाकर खो दिया, दिल ने अपना चैन ।।...5

लगनी थी सो लग गई, उल्फ़त की यह आग ।
झुलस रहा है रात दिन, मेरे मन का बाग़ ।।...6

खुलना था सो खुल गया, मेरे मन का भेद ।
पाप न समझा प्रेम को, शर्म न कोई खेद ।।...7

तुम हरियाली कुंज की, मैं जंगल की आग ।
तुम तक आते लोग सब, मुझसे जाते भाग ।।...8

सबके रहते लग रहा, क्यों सूना संसार ।
क्या तुम ही हो साँवरे, इस जीवन का सार ।।...9

जग मेरे किस काम का, तुमरे बिन भरतार ।
तुम ही जीवन साँवरे, तुम मेरा संसार ।।...10

तुमरा मिलना साँवरे, निपट अजोगी बात ।
फिर भी तुमरी आस में, कलपूँ हूँ दिन रात ।।..11

प्रेम न देखे शुभ-अशुभ, प्रेम न देखे वार ।
जो पल बीते प्रेम मैं, पावन समझो यार ।।...12

तुमको देखूँ हर घड़ी, बैठूँ तुमरे पास ।
बात कहूँ जी की सखा, एक यही है आस ।।...13

मेरी भोली आस को, मत समझो अपराध ।
पाप नहीं मन में तनिक, संगत की बस साध ।।...14

इक तेरे विश्वास पर, उतरी हूँ मँझधार ।
पार लगाओ साँवरे, बन जाओ पतवार ।।...15

मैं तो नंगी हो गई, बीच सड़क बाज़ार ।
लाज रखेगा प्यार की, साँवरिया सरकार ।।...16

साजन तुम राजन भये, मैं हूँ एक फ़क़ीर ।
छत्र तुम्हारे शीश पर, मेरे पग ज़ंजीर ।।...17

पल-पल काटूँ साँवरे, दिन है एक पहाड़ ।
साँझ ढले इस डील को, पटकूँ खाय पछाड़ ।।...18

उगया सो दिन ढल गया, झरे हरे सब पात ।
नाता सच्चा प्रेम का, झूठी हर इक बात ।।...19

उलझी अपने जाल में, किसको दूँ क्या दोष ।
मैं विरहन इक माँकड़ी, धर लीना संतोष ।।...20

आस गँवाकर मेल की, बैठी बाँह पसार ।
मौत मिले जो साँवरे, पहनूँ कर गलहार ।।...21

तुम निर्मोही साँवरे, मुझको तुमरा मोह ।
चूस रहा है रात-दिन, मेरे प्राण बिछोह ।।...22

तुम उजला दिन साँवरे, मैं हूँ काली रात ।
तुमसे बतियाए जगत, मेरी ओझल बात ।...23

यार रिझाऊँ किस तरह, कैसा हो सिणगार ।
भस्म रमाऊँ देह पर, या फूलों के हार ।।...24

दासी पाँचों इंद्रिया, मन सबका सिरदार ।
दास तुम्हारा मन हुआ, तुम मेरे भरतार ।।...25
मौलिक और अप्रकाशित ।
©'खुरशीद' खैराड़ी जोधपुर 9413408422

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on September 10, 2017 at 10:30pm
जनाब खुर्शीद भाई साहब खूबसूरत दोहों के लिए मुबारक़बाद
Comment by Samar kabeer on September 7, 2017 at 10:36pm
जनाब ख़ुर्शीद खैराड़ी जी आदाब,प्रेम-पचीसी भाग 4 भी बहुत उम्दा है, बधाई स्वीकार करें ।
बात प्रेम की हो रही है तो एक निवेदन करूँगा आपसे कि मंच के प्रति भी अपना प्रेम ज़ाहिर करें,और अपनी सक्रियता सिर्फ़ रचना पोस्ट करने तक ही सीमित न रखें,पिछली तीन प्रस्तुतियों पर आई टिप्पणियों का आपने जवाब बहुत कंजूसी से दिया,कृपया मंच पर अपनी पहली जैसी सक्रियता दिखाएँ,आप जैसे ज़हीन लोगों की सख़्त ज़रूरत है ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 7, 2017 at 10:12am
वाह वाह आदरणीय बहुत सुन्दर दोहे हुए..प्रेम रस से परिपूर्ण..उत्तम

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