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सोमेश्वर मंदिर ( संस्मरण)

सन १९८२ , बी वाय के कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स, शरणपुर रोड, नाशिक , यह उनदिनों की बात है जब मैं इस कॉलेज में पढ़ती थी |

हमारी कॉलेज के पैरेलल दो सड़के जाती थी, एक त्रम्बकेश्वर रोड, और दूसरी गंगापुर रोड , और इन दोनों के बीच पड़ता है हमारा कॉलेज रोड|
हमारे कॉलेज से एक रास्ता कट जाता है जो गंगापुर रोड की तरफ जाता है , कॉलेज से करीब ४.८ किलोमीटर की दुरी पर है यह सोमेश्वर मंदिर | महादेव जी का यह एक प्राचीन मंदिर है , गोदावरी नदी के तट पर बसा यह मंदिर अपनी सुंदरता लिए हुए है | उनदिनों गंगापुर रोड के दोनों किनारों पर खेत खलियान हुआ करते थे | बारिश के मौसम में हरी धरा को देखने का आनंद कुछ और ही होता था | सड़क पर चलते हुए , कहीं होते थे भुट्टे ( मक्के) बेचने वाले और कहीं होते थे लाल अमरुद बेचने वाले लोग जो चटपटा मसाला लगाकर अपना सामान बेचते थे |

सावन के महीने में सोमेश्वर के मंदिर में पूजा आराधना विशेष होती थी , क्योकि शिव जी का ही मंदिर है | कॉलेज से वहां तक पैदल जाने का जैसे मुझे और मेरे साथियों को जूनून था , अक्सर हम वहां चले जाते थे , वहां एक और चीज थी जो हम सभी को पसंद थी , वो थी गोदावरी नदी का निर्मल जल , और उसके थोड़ी दूर पर के झरना है भदभदा के नाम से , सोमेश्वर मंदिर के पास जो नदी है वहां से एक पगडण्डी जाती थी इस भदभदा की और , चट्टानों पर चलते हुए , गीली मिटटी पर चलते हुए कभी फिसलते हुए , पानी में अठखेलियां करते हुए हम भदभदा चले जाते थे |

उस झरने का बहाव इतना खूबसूरत लगता था की मानो दूध बह रहा है, वहीँ पानी से कटी हुई एक छोटी सी गुफा भी है , जो बरसात में और भी सुन्दर दिखती थी | ऊपर से इस झरने को देखना मानो स्वर्ग का एहसास होता था , यहाँ से इसी पानी से पत्थर कटे और कुछ सीढियाँ भी बन गयीं थी , जिसको अब शायद व्यवस्थित बना दिया गया है , उस दौरान बड़ी छोटी , आड़ी तीरछी सीढ़ियों से हम नीचे पहुँच जाते थे , वहां एक बड़ी सी चट्टान पर बैठकर घंटो पानी के खेल किया करते थे, कभी कभी पानी के सांप दिखाई दे जाते थे , पानी में उनको तैरते हुए देखकर बड़ा मज़ा आता था |

वहां से जब थक हार जाते तो दोबारा सोमेश्वर मंदिर की तरफ आ जाते , पूजा अर्चना करके , बाहर आते तो वहां एक अम्मा बैठी हुई दिखाई देती थी, दुबली पतली, नव वारि साड़ी में एक टूटी फूटी टोकरी में पत्ते बिछा कर अमरुद बेचा करती थी वो ,उनसे हमारी दोस्ती हो गयी थी क्योकि अक्सर हम वहां जाया करते थे , कभी लम्बे अंतराल पर जाते तो वे पूछती , " क्यों बच्चों बहुत दिनों में आना हुआ , देखो तुम्हारे मनपसंद लाल अमरुद तैयार कर के रखे है , तुम्हारा शोर दूर से ही सुन लिया था | उस दौरान ५० पैसे या ज्यादा से ज्यादा १ रुपये का एक अमरुद आता था | हम करीब ३० से ४० बच्चों का ग्रुप एक साथ जाता था वहां | आप सोच रहे होंगे इतना बड़ा ग्रुप ? पर हाँ हम सब एक ही ग्रुप के बच्चे थे , कहीं भी जाते थे इक्कठे जाया करते थे कभी कोई एब्सेंट होता था तो प्रयास करते थे की न जाएँ , पर सावन में पूजा करने जाने का हमारा नियम ही था , कभी कभी होता था कुछ लोग नहीं आ पते थे तो उनके घर हम उनके हिस्से का अमरुद शाम को पहुंचा देते थे |

जब तक कॉलेज में पढ़े यह नियम रहा , या तो त्रम्बकेश्वर मंदिर जाना , त्रम्बकेश्वर के लिए तो हमे बस से जाना पड़ता था , वहां मंदिर के दर्शन करने के बाद वहां के बाजार के बीच से एक सड़क जाती है , उसपर थोड़ी दूर चल कर पथरीली सीढियाँ हैं , उसपर छोड़कर एक गौमुखी है जो दक्षिण गोदावरी का उद्गम स्थल है , उसके दर्शन कर पूजन कर हम लौट आते थे |

इस बाज़ार में मीठी सेव गुड़ की बनी हुई बड़ी स्वादिष्ट मिलती थी | हम उसको खरीदकर खाते थे | गौमुखी के पास , कुछ जंगल जैसा भी हुआ करता था , वहां जटाधारी साधुओ को ध्यान में बैठा देखकर कौतुहल होता था | पर वो इलाका आम जनता के लिए वर्जित होता था | पर उनको देखकर कभी तो बहुत डर सा लगता था | अजीब होती थी उनकी वेश भूषा |

कॉलेज के बाद यानी १९८६ -८७ के बाद इन दोनों जगह पर जाना संभव नहीं हो पाया , नाशिक तो गयी , और गर सोमेश्वर गयी भी तो अपने पुराने दोस्तों को तलाशा जो अब सब अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गए थे | समय के साथ साथ हर वो चीज़ छूट जाती है , दोस्त भी बिछड़ जाते हैं और रह जाती है सिर्फ यादें और उनके साथ बिताये हुए पल |

आज भी वह जगह मुझे बेहद पसंद है , और पुरानी यादों को याद कर आज भी उस पानी की लेहरो से अटखेलती करती हुई मैं और मेरे साथियों को देख लेती हूँ | क्या हुआ जो यह सिर्फ एक संस्मरण है पर उन पलों को आज भी अपने में ज़िंदा पाती हूँ |

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Nita Kasar on July 25, 2017 at 8:57pm
बेहद रोचक और दिलचस्प संस्मरण है,हम अभी कुछ वर्ष पूर्व त्रामंबकेशवर हो कर आये पुरानी यादें ताज़ा हो गई ।कल्पना बहना बधाई संस्मरण साँझा करने के लिये ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 23, 2017 at 7:02pm

आदाब समर भाई जी , अभी कुछ दिनों पहले आपने मेरी एक कविता पर कहा था , पहली नदी है बाद में झरना क्यों ? असल में वो इसी जगह की यादे थी | इस जगह पर अनगिनित यादें है बेहद सुंदर जगह है , घंटो बिताया है समय मैंने | हसेंगे आप गर यह कहूँ की कई बार मैं किताबे ले कर जाया करती थी , वहां पत्थर पर बैठकर पढने में बड़ा मजा आता था | सादर | 

Comment by Samar kabeer on July 23, 2017 at 5:56pm
बहना कल्पना भट्ट जी आदाब,यादों पर मबनी आपकी याददाश्त के पन्नों से उभरे इस सृजन पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 23, 2017 at 8:29am
dhanyawad Adarniya Mohit ji

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