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ग़ज़ल -तुम चाँद हो फलक पर, या तारों की बहार कह दुँ ,

ग़ज़ल 

तुम चाँद हो फलक पर, या तारों की बहार कह दुँ ,
तुम्हे फूलों की कहूँ रानी ,या गुलबहार कह दूँ ,
देखकर के तुमको शर्मा जाये ,ये गुलशन
तुम मलका ऐ गुल बोलूं या नौबहार कह दूँ ,
तुम चाँद पर भी होती तो फ़ौरन मैं चला आता,
तुमसे मिलने को है कितना, दिल, बेक़रार कह दूँ ,
मिलती नहीं है फुर्सत मुझे तुमको सोचने से
इसे आदत बताऊ अपनी ,या कारोबार कह दूँ,
आते हैं ख्वाब तेरे ,अब तो नींद की जगह
कितना हैं मुझको "सैफी" तुमसे प्यार कह दूँ।

शफ़ीक़ सैफी
मौलिक एबं अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 20, 2017 at 11:40am

आ. शफीक़ भाई , बिना काफिये की ग़ज़ल नही हो सकती , हाँ ... बिना रदीफ के ग़ज़ल ज़रूर कही जा सकती है .. इस लिहाज़ से आपकी रचना गज़ल की श्रेणी मे नही आ रही है .. प्रयास के लिये बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on July 19, 2017 at 2:29pm
जनाब रवि शुक्ला साहिब की बातों पर ध्यान दें ।
Comment by Ravi Shukla on July 19, 2017 at 12:58pm

आदरणीय शफीक सैफी साहब आपने गजल विधा के साथ यह रचना पेश की है मंच के अनुशासन के अनुसार गजल का अरकान या बह्र लिखने की परंपरा है आपने नहीं लिखा जिससे इसका अनुमान नहीं हो पा रहा है कि आपने किस बहर में यह गजल कही है साथ ही काफिया का निर्वाह भी नहीं हो पाया है इसमें । यदि आप चाहें तो गजल के बारे में विस्‍तृत जानकारी मंच पर है आप उनके आलेख का लाभ ले सकते है । सादर

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