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पीते हैं ...

सब 

कुछ न कुछ
पीते हैं //


रजनी
सांझ को
पी जाती है
और सहर
रजनी को
फिर सांझ
सहर को
सच
सब
कुछ न कुछ
पीते हैं //

अंत
आदि को
पंथ
पथिक को
संत
अनंत को
घाव
भाव को
सच
सब
कुछ न कुछ
पीते हैं //


नयन
नीर को
नीर
पीड़ को
समय
प्राचीर को
सरोवर
तीर को
सच
सब
कुछ न कुछ
पीते हैं //

जीवन
कहाँ मधुबन है
थोड़ी खुशी
बेअंत
क्रंदन है
कंटकित राहें है
प्रणय की बस्ती में
अश्क और आहें हैं
रिश्ते सिसकते हैं
स्वार्थी बाहें हैं
इतने सबके बावज़ूद
धरा पर सब जीते हैं
खुश रहने के लिए
सच
सब
कुछ न कुछ
पीते हैं //

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 427

Comment

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Comment by Sushil Sarna on June 28, 2017 at 7:26pm

आदरणीय  Mohammed Arif जी प्रस्तुति को अपने स्नेह से अलंकृत करने का शुक्रिया। आपको सपरिवार ईद मुबारक सर। 

Comment by Mohammed Arif on June 25, 2017 at 6:49pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, सच कहा आपने हम कुछ न कुछ पीते जा रहे हैं और जी रहे हैं । सुंदर रचना । बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on June 25, 2017 at 2:42pm

आदरणीय नरेंद्रसिंह जी प्रस्तुति को अपने स्नेह से अलंकृत करने का शुक्रिया। 

Comment by narendrasinh chauhan on June 24, 2017 at 4:34pm

सुन्दर रचना 

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