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रेत पर फूल खिलाने आये (ग़ज़ल)

2122 1122 22

रेत पर फूल खिलाने आये
दश्त में कितने दीवाने आये

मिल गया राह में बचपन का यार
याद फिर गुज़रे ज़माने आये

धूप के पंख निकल आये जब
कुछ शजर जाल बिछाने आये

एक दिन बेखुदी जो ले डूबी
तब मेरे होश ठिकाने आये

वक़्त-बेवक्त भड़क कर आँसू
ग़म की सरकार गिराने आये

नाम लिक्खा था किसी का उनपर
किसी के हिस्से में दाने आये

दिल का दरवाज़ा खुला ही रक्खो
किस घड़ी कौन न जाने आये

आया है हिज्र का फिर से त्यौहार
अश्क़ फिर धूम मचाने आये

देखो-देखो ये सितारे कैसे
रात की माँग सजाने आये

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 18, 2017 at 8:23pm
बेहतरीन ग़ज़ल हुई आदरणीय मेहता जी..सादर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on May 17, 2017 at 7:53pm
आदरणीय जयनित भाई बहुत् खूब अशआर कहे हैं,हारदिक बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 17, 2017 at 7:37am

आ. जयनित भाई , खूबसूरत गज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on May 16, 2017 at 5:42pm
बहुत उम्दा पेशकश ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 16, 2017 at 8:33am

आ. जयनीत जी,

अच्छी ग़ज़ल हुई है ..हार्दिक बधाई ,,
एक दिन बेखुदी जो ले डूबी... इस मिसरे की नेचरल बहर २१२२, १२१२, २२ बन रही है अत: हो सके तो किसी अन्य तरकीब से कहने की कोशिश करें..
सादर ..

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