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झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”

कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”

झील बोली, “मेरा निजी लाभ तो कुछ नहीं है। पर मैं नीचे की तरफ बहती तो स्तर भले ही गिर जाता लेकिन मेरा पानी साफ हो जाता और ये इंसानों और जानवरों के बहुत काम आता। इससे धरती के नीचे का जलस्तर भी बढ़ जाता तथा मैं जिस ज़मीन से होकर मैं बहती उसे भी उपजाऊ बना देती।”

कवि बोला, “फिर भी स्तर तो तुम्हारा गिरता ही, बढ़ता तो नहीं न।”

झील मुस्कुराकर बोली, “गिरते गिरते एक दिन सागर तक पहुँचती। सूरज से युद्ध करती और इस युद्ध के कारण उत्पन्न ऊर्जा से भाप बनकर ऊपर उठती तथा बादल बनकर हवाओं की मदद से आसमान को छू लेती । पर मैं तो कैद हूँ, ऐसा नहीं कर सकती। लेकिन सुनो, तुम तो आज़ाद हो न।”

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(मौलक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 27, 2016 at 11:37am

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीया राजेश कुमारी जी।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 27, 2016 at 11:37am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया सीमा जी।


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Comment by rajesh kumari on October 23, 2016 at 10:17pm

ऊंचाइयों की गिरफ्त में बंधकर नीचे ना देखना एक आत्ममुग्धता के उन्माद में जीना ये सबसे बड़ा अवगुण है लेखक या कवि का मैं उसे माँ शारदा का सच्चा/सफल  भक्त नहीं कह सकती आपने बिम्बात्मक शैली में ऐसे लोगों पर जबरदस्त कटाक्ष किया है बहुत बहुत बधाई आपको आद० धर्मेन्द्र जी 

Comment by Seema Singh on October 23, 2016 at 3:11pm
बहुत सुंदर ढंग से बात कही है आपने, ये ऊंचाइयों की आदत होना ही तो बहुत खतरनाक है साहित्य के लिये भी और समाज के लिए भी। सरलता के साथ सन्देश देती कथा पर ह्रदय से शुभकामनाएं आ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 22, 2016 at 4:41pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय कल्पना भट्ट जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 22, 2016 at 4:41pm

इस विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए हृदय से धन्यवाद आदणीय रवि प्रभाकर साहब। आप सच कह रहे हैं लघुकथा गद्यगीत हो तो अत्यंत प्रभावशाली होती है। आपको मेरा प्रयास अच्छा लगा इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 22, 2016 at 4:39pm

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय उस्मानी साहब।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 22, 2016 at 4:39pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय शिज्जू जी

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 22, 2016 at 11:26am
वाह । अद्भुत लेखन हुआ है आदरणीय । बहुत बहुत बधाई ।
Comment by Ravi Prabhakar on October 22, 2016 at 8:06am

लघुकथा के स्‍तंभ माने जाने वाले स्‍व्. श्री शंकर पुण्‍तांबेकर जी लघुकथा को एक गद्यगीत मानते थे। आ. धर्मेन्‍द्र भाई आपकी लघुकथा पठन के दौरान मैनें पाया कि वो ऐसा क्‍याें मानते थे। लघुकथा में एक रवानगी है जो पाठक को अपने साथ बहा ले जाने में समर्थ है। सुन्‍दर वाक्‍य विन्‍यासों से सजी, अर्थपूर्ण लघुकथा बीच-बीच में उपदेशात्‍मक होने का आभास देती है पर अंत तक आते आते इसका सौदंर्य देखते ही बनता है। लघुकथा का शीर्षक बहुत ही उत्‍तम है। 'जनकवि' शीर्षक के माध्‍यम से आपने कथित बुद्धिजीवी कवियों पर अत्‍यंत तीक्ष्‍ण कटाक्ष किया है जो अपने लेखन से जनमानस की बात न कर ऊंची ऊंची हांकते रहते है। मैं आपको इस लघुकथा हेतु ह्दय से शुभकामनाएं भेंट करता हूं। सादर

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