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ग़ज़ल : मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

अपनी ताक़त के बलबूते हाथी ज़िन्दा है

मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है

 

कैसे मानूँ रूठ गया है मेरा रब मुझसे

मैं ज़िन्दा हूँ, पैमाना है, साकी ज़िन्दा है

 

सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से

कैसे अब तक मेरे भीतर बागी ज़िन्दा है

 

लड़ते हैं मौसम से, सिस्टम से मरते दम तक

इसीलिए ज़िन्दा हैं खेत, किसानी ज़िन्दा है

 

सबकुछ बेच रही, मानव से लेकर ईश्वर तक

ऐसे थोड़े ही दुनिया में पूँजी ज़िन्दा है

 

आग बहुत है तुझमें ये माना ‘सज्जन’ लेकिन

ढूँढ़ जरा ख़ुद में क्या तुझमें पानी ज़िन्दा है

---------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by gumnaam pithoragarhi on September 2, 2015 at 7:36pm

आग बहुत है तुझमें ये माना ‘सज्जन’ लेकिन

ढूँढ़ जरा ख़ुद में क्या तुझमें पानी ज़िन्दा है

वाह खूब ग़ज़ल हुई है ,,,,,,,,,,, बधाई

Comment by Shyam Narain Verma on September 2, 2015 at 6:31pm
बहुत खूब ॥ आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2015 at 4:55pm

सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से

कैसे अब तक मेरे भीतर बागी ज़िन्दा है

आग बहुत है तुझमें ये माना ‘सज्जन’ लेकिन

ढूँढ़ जरा ख़ुद में क्या तुझमें पानी ज़िन्दा है    -- 

इन लाजवाब अश आर के लिये और ग़ज़ल के लिये आपको दिली बधाइयाँ आदरणीय  धर्मेंन्द्र भाई जी  ॥

 

Comment by Sushil Sarna on September 2, 2015 at 2:10pm

सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से
कैसे अब तक मेरे भीतर बागी ज़िन्दा है
.... वाह आदरणीय वाह … यूँ तो सारे अशआर खूबसूरत हैं लेकिन ये शे'र तो गज़ब का भाव लिए बना है। दिली दाद कबूल फरमाएं आदरणीय _/\_

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"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
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"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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