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इसी तरह से ग़ज़ल हुई है -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

121-22---121-22---121-22---121-22

 

मेरी पुरानी जो वेदना थी वो आज थोड़ी सबल हुई है

ज़रा सी फिर आँख डबडबाई इसी तरह से ग़ज़ल हुई है

 

खुदा के अपने ये नेक बन्दे कभी किसी का बुरा न करते

बता खुशी भी क्यों जिंदगी से गरीब के बेदखल हुई हैं

 

लगी है कैसी अजीब आदत न वक़्त देखें न कोई मौका

किसी की पीड़ा जहाँ भी देखी ये आँख रह-रह सजल हुई है

 

किसी ने रोका, की मिन्नतें भी, बहुत बुलाया हमें किसी ने

हुआ पराजित ये गाँव फिर से नगर की कोशिश सफल हुई है

 

मिली अंधेरों में रौशनी फिर दिखी कहर में मुहब्बतें तो

जहाँ पे कीचड़ सना हुआ था वहीँ तमन्ना कँवल हुई है

 

ये ज़िन्दगी तो हज़ार मौकों से इस कदर यूं भरी हुई है

किसी ने मौका ज़रा भी समझा, ये जिंदगी फिर सरल हुई है

 

मुआवजें हो तमाम लेकिन वही खसारा, वही हकीकत

जमीं से फंदे उगे हज़ारों तबाह जब भी फसल हुई है   

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 5, 2015 at 4:31am

आदरणीय सुशील सरना सर, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन,  सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.

Comment by Samar kabeer on September 4, 2015 at 11:21pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,आजकल आपकी ग़ज़लें बहुत निखार पर हैं ,ये देखकर बहुत प्रसन्न हूँ ,बहुत ही शानदार और कमाल की ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

"मिली अंधेरों में रौशनी फिर दिखी कहर में मुहब्बतें तो"

कृपया जानकारी दें कि इस मिसरे में 'कहर' का अर्थ क्या है,कहीं कोहरा तो नहीं ?

एक बात और कहे बग़ैर नहीं रह सकता,प्रचलन में चाहे ये ठीक हो लेकिन सही शब्द है 'दख़्ल','फ़स्ल',जानकारी के लिये बताया है नोट कर लें ।
Comment by मनोज अहसास on September 4, 2015 at 10:29pm
इसी मे मन की है वेदना भी इसी मे जग के फ़साने सारे
इसी को पढ़ कर के लिखना सीखे कमाल की ये ग़ज़ल हुई है
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 4, 2015 at 8:41pm

किसी ने रोका, की मिन्नतें भी, बहुत बुलाया हमें किसी ने

हुआ पराजित ये गाँव फिर से नगर की कोशिश सफल हुई है 

कमाल है ! 

ग़ज़ल केलिए हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएँ

Comment by Neeraj Neer on September 4, 2015 at 8:35pm

वाह बहुत उत्तम ... बहुत सुंदर रचना ... ज़रा सी फिर आँख डबडबाई इसी तरह से ग़ज़ल हुई है

Comment by gumnaam pithoragarhi on September 4, 2015 at 8:10pm

वाह मिथिलेश जी वाह खूब ,,,,,,,, बधाई ,,,,, स्वीकारें ,

Comment by जयनित कुमार मेहता on September 4, 2015 at 7:13pm

  शानदार ग़ज़ल, आदरणीय मिथिलेश जी..

Comment by मोहन बेगोवाल on September 4, 2015 at 5:36pm

 आदरनीय मिथिल जी ,बहुत ही अच्छी गजल कही आप जी ने कही , सभी अश'आर बाकमाल - बधाई कबूल करें 

Comment by jyotsna Kapil on September 4, 2015 at 4:13pm
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आ.मिथिलेश वामनकर जी।
मुआवजें हो तमाम लेकिन वही खसारा, वही हकीकत
जमीं से फंदे उगे हज़ारों तबाह जब भी फसल हुई है

क्या बात है.....वाह।
Comment by Sushil Sarna on September 4, 2015 at 12:03pm

मिली अंधेरों में रौशनी फिर दिखी कहर में मुहब्बतें तो
जहाँ पे कीचड़ सना हुआ था वहीँ तमन्ना कँवल हुई है
… जय हो आदरणीय मिथिलेश भाई इन मिसरों में क्या अहसास लाये है आप .... जितनी भी तारीफ़ करूँ रुकती नहीं जुबां .... बहरहाल इस खूबसूरत पेशकश पर बन्दे की दिल से दाद कबूल फरमाएं।

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