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कबीरा, सूर, मीरा और तुलसीदास रखता हूँ। (ग़ज़ल)

1222---1222---1222-1222

 

मैं घर से दूर आया हूँ मगर कुछ ख़ास रखता हूँ।

तुम्हारी याद की ताबिश हमेशा पास रखता हूँ।

 

कभी वट पूजती हो तुम, दिखा के चाँद को चलनी

मुझे अवसर नहीं ऐसे मगर उपवास रखता हूँ।

 

मैं शबनम देख लेता हूँ तुम्हारी याद आती है

यही ख्वाहिश लिए मै जेब में अब घास रखता हूँ।

 

किसी भी लक्ष्य को पाकर, ख़ुशी से झूमता लेकिन

सफलता में भी अंतिम सत्य का आभास रखता हूँ।

 

कभी मंदिर या मस्जिद के बुलावे पर नहीं जाता

परम सत्ता पे मैं लेकिन बहुत विश्वास रखता हूँ।

 

चलो माना कि दरिया हो, मगर तहजीब मत भूलों

सुनो मैं भी समंदर से जियादा प्यास रखता हूँ।

 

कभी मैंने नहीं चाही खुशामद या सिफत लेकिन

शगुफ्ता इक तबस्सुब की जरा सी आस रखता हूँ।

 

हथेली पर मेरे कल की तमन्ना रक्स करती है

मगर मैं भी हमेशा हाथ में इतिहास रखता हूँ

 

सुनो, सुन के बताओं क्या इसी को दर्द कहते है?

तुम्हारे सामने अपने सभी अहसास रखता हूँ।

 

मैं ग़ालिब मीर पढता हूँ, ग़ज़ल के साथ में लेकिन

कबीरा, सूर, मीरा और तुलसीदास रखता हूँ।

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 2, 2015 at 8:44am

आ० मिथिलेश सर! जिंदाबाद गज़ल हुयी है...इस गज़ल पर आपके हाथ चूम लूँ ऐसा जी कर रहा है! बधाई! अभिनन्दन!


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 1, 2015 at 11:41pm

आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल पर आपका अनुमोदन और मार्गदर्शन पाकर दिल खुश हो गया है.ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.....

 मतले का उला आपके मार्गदर्शन अनुसार पुनः निवेदित है -

मैं घर से दूर रहकर भी बहुत कुछ ख़ास रखता हूँ / मैं तुमसे दूर रहकर भी बहुत कुछ ख़ास रखता हूँ/

मैं तुमसे दूर रहकर भी ये दिल उजियास रखता हूँ/ 

Comment by Ravi Shukla on September 1, 2015 at 10:50pm
आदरणीय मिथिलेशजी आपकी ग़ज़ल के सभी शेर बहुत ही अच्छे हुए है । दाद क़ुबूल करे । शबनम और जेब में घास रखने का प्रतीक ताज़ी हवा का वह झोंका है जो आप के भाव की अभिवक्ति की नवीनता को दर्शाती है । ह्रदय से बधाई ।

समंदर से जियादा प्यास का लहज़ा सामने वाले को शालीनता से खबरदार करने की अच्छी पेशकश है
घमंड नही बल्कि आत्म विश्वास । बहुत सुन्दर । बधाई मिथिलेश जी
सभी शेर अच्छे हुए है जिससे सुन्दर ग़ज़ल हुई है इसलिए पूरे एहतराम के साथ एक पाठक का ये भी निवेदन है की मतले के ऊला को भी उतना ही खूबसूरत करे जितनी की बाकी ग़ज़ल है । ये दिल मांगे मोर ।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 1, 2015 at 11:11am

आदरणीय भुवन जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार सादर 

Comment by भुवन निस्तेज on September 1, 2015 at 10:06am

चलो माना कि दरिया हो, मगर तहजीब मत भूलों

सुनो मैं भी समंदर से जियादा प्यास रखता हूँ।

बधाई कबूल करें सर...


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 1, 2015 at 12:09am

आदरणीय समर कबीर जी, मार्गदर्शन हेतु आपका हार्दिक आभार. टंकण त्रुटी तबस्सुब को तबस्सुम करता हूँ.सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 1, 2015 at 12:06am

आदरणीय समर कबीर जी, आपका मुखर अनुमोदन मेरे लिए उत्साहवर्धक हुआ करता है, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 1, 2015 at 12:05am

आदरणीय मोहन बेगोवाल सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 1, 2015 at 12:04am

आदरणीय हर्ष जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 1, 2015 at 12:02am

आदरणीय मनोज भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 

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