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दो दिल दो रास्ते(कहानी,सोमेश कुमार )

दो दिल दो रास्ते

मोबाईल पर मैसेज आया –“गुड बाय फॉर फॉरएवर |”

कालीबाड़ी मन्दिर पर उस मुलाकात के समय जब तुमने आज तक का एकमात्र गिफ्ट प्यारा सा गणेश दिया था तो उसके रैपर पर बड़े आर्टिस्टिक ढंग से लिखा था-फॉर यू फॉरएवर और अब ये !|

यूँ तो तुम सदा कहते थे -मुझे एक दिन जाना होगा |

पर इसी तिथि को जाओगे जिस रोज़ मेरी ज़िन्दगी में आए थे दो साल पहले |वो भी इस तरह |इसकी कल्पना भी ना की थी |

अगला मैसेज-मुझे याद मत करना |अगर तुम मुझे याद करोगी तो मैं स्थिर नहीं रह पाऊँगा |टेलीपैथी सच में काम |करती है और मैंने जब-जब ये महसूस किया है तुम्हें बताया है |पर अब सब कुछ खत्म कर देना ही ठीक है |इसमें |हम दोनों की भलाई है |तुम मेरे जीवन का सबसे खूबसुरत पल हो |मेरा प्यार हो |अब मुझे जीवन से ये शिकायत नहीं कि मैंने प्रेम को नहीं जिया |प्रेम-प्यार-ईश्क कुछ भी पुकारो इनकी पूर्णता ही इनका अधूरापन है |अगर हम एक-दूसरे को पा लेते तो हमारा प्यार मर जाता|पर अब मरने से भी शिकायत नहीं है क्योंकि हमारा प्रेम जीवित है |

आह !कितने निर्दय कितना कठोर हो प्रदीप | मैं तो तुम्हें छुईमुई समझती थी पर तुम तो बबूल निकले |एकबार भी  नही सोचा मेरे बारे में |सब कुछ तो ठीक चल रहा था |फिर एकदम से इतना बड़ा फैसला |

दूर जा रहे हो मुझसे |वो भी उसी रेलगाड़ी में जिससे तुम आए थे-ठीक दो साल पहले |तो क्या मेरे रेल का सपना तुम्हीं से जुड़ा था ?क्या बार-बार अलग-अलग शक्लों में सहयात्री की सीट पर तुम्हीं दिखाई देते थे ?क्या हमारा  -तुम्हारा यहीं तक का साथ था ?

जब उस टिकट-बाबू का रिश्ता आया था तो तुमनें साँस खींचते हुए कहा था कि देखों आ गया तुम्हारे रेल के सपने वाला |पर उसकी रेल तो गोत्र व् उपजाति की पटरियों पर ही उतर गई थी |वो तो चालू डिब्बे का मुसाफिर था जोकि रिजर्व कम्पार्टमेंट को खाली देखकर जबरन घुस आया था |उसके लिए तो मैं एक चलता पुर्जा थी |उस देहाती की सोच के हिसाब से हर शहरी लड़की चलता पुर्जा थी |मैंने इतना कुछ सहा क्योंकि तुमने ही हरी झंडी दिखाई थी इस रेल की,वर्ना मैं तो तुम्हारे साथ अन-कन्फर्म टिकट पर यात्रा करते हुए भी खुश थी |सहयात्री अच्छा हो तो यात्रा स्वयं सुखद हो जाती है |

तुम कहते थे कि कानपुर एक एक्सचेंज स्टेशन है |यहाँ से लाइनें बदल जाती है|लोग यहाँ से अलग-अलग रास्तों के लिए गाड़ियाँ बदलते हैं |तो क्या अब हम दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं ?क्या अब हम कभी नहीं मिलेंगे ?

फिर उसका संदेश-“जिस तरह प्रेम अमिट है उसी तरह तुम भी मेरे लिए अमिट हो |तुमे मेरी रचनाओं के माध्यम से मेरी बनी रहोगी और मैं भी तुम तक इस माध्यम से पहुँचता रहूँगा |तुम मेरी कविता का छंद हो |मेरी कहानियों की आधार |तुम्हारे कारण ही मैं इतना उभरा,इतना चमका |जब तक तुम हो तभी तक मेरी कांति है,तभी तक मेरी कीर्ति है |मुझे अपने इस स्वरूप से विरक्त होने के लिए मत कहना |इस स्वरूप में हम दोनों सुरक्षित हैं |हमारा प्रेम सुरक्षित है |संसार की वक्र दृष्टी से हम दोनों सुरक्षित हैं |यहाँ हमारे बीच कोई दीवार नहीं है |है तो केवल आकाश सा खुला हृदय और असीम प्रेम |”

उफ़!कैसी जादुई बाते लिखते हो |किसी को भी सम्मोहित कर ले |किसी को भी अपने व्यक्तित्व से पागल बना दे ?किसी में भी प्यास जगा दे ?प्यास ही तो जगा कर गए हो मुझमें ! वर्ना मैंने कब सोचा था कि इन चक्करों में पड़ूगी |प्रेम की मृग-मरीचिका ,लैला-मजनू,हीर-राँझे के किस्से सब कोरी कल्पना लगते थे मुझे |पर अब महसूस होता है ये दंश |शायद काले बिच्छु का डंक भी ऐसी लहर नही देता |समझ ही ना सकी कैसे तुम मेरे व्यक्तित्व  को काबू करता चले गए और मेरे दिलो-दिमाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया |रात-दिन सुबह-शाम बस तुम्हारे  नाम की माला |खाना बनाते हुए तुम्हारे बताए नुस्खो पर अम्ल |बर्तन की खनखनाहट में तुम्हारी  खनकती आवाज़ |और फ़ोन-उससे तो एक पल दूर नही रहती थी |ना जाने कब घंटी बजा दो ?ना जाने कब मैसेज आ जाए –‘एवलेबल’ |ये फ़ोन ही तो जिम्मेदार है इन सबका |ना उस रोज़ तुम्हारे आग्रह पर फ़ोन करती |ना दोस्ती का प्रस्ताव देते |ना तुम्हें अपनी लज्जतदार बातों से मुझे अपना कायल करने का अवसर मिलता |अब तुम कहते हो कि बिना मेरी आवाज़ के जीओ |अब इस बंसी पर दूसरे ओठों का अधिकार है |समाजिक और वैधानिक रूप से उसी का तुम पर आधिपत्य है |तो क्या कृष्ण एक मिथक है ?

फिर उसका संदेश-“जीवन में आगे बढ़ना ही जीवित होने का प्रमाण है |मेरी यादों को लेकर अगर तुम स्थिर हो गई तो मुझे बुरा लगेगा |पानी बहता है तो कईयों को जीवन देता है पर अगर खड़ा रह जाए तो सड़ जाता है और निष्प्रयोजित सूखता रहता है |जीवन में जिसकी संगिनी बनना उसे हृदय से अपनाना |केवल शरीर से नहीं आत्मा से भी उसकी हो रहना |अगर तुम ऐसा करती हो तो मैं समझूँगा कि तुमने मुझे सच्चा प्रेम किया अन्यथा मेरा प्रेम खड़ा अर्थहीन जल था |जो तुम्हें बदल ना सका |”

कितनी आसानी से कह दिया कि भूला देना |क्या प्रथम प्रेम के सच्चे और निष्कपट भावों को भुलाया जा सकता है ?बेशक से मैं तुम्हारे जीवन में प्रथम नहीं थी और शायद अंतिम भी नहीं| पर तुम तो पहले पुरुष थे जिसने मेरे स्त्री-भावों को प्रज्जवलित किया |बेशक से तुम  मुझे एक साधारण लड़की मानते हो और स्वयं को पुरुष की सभी कमजोरियों से भरा मनुष्य |पर मैंने तो तुम्हें देव रूप में ही अपने हृदय में स्थापित किया है |देव-प्रतिमाएँ तो तभी विस्थापित की जाती हैं जब वो भग्न हो या आपकी क्ष्रद्धा उनसे समाप्त हो जाएँ |पर ये प्रतिमा तो कहीं से भग्न नहीं लगती और जहाँ तक श्रद्धा का सवाल है ये तो नए देवता के आने के बाद ही तय होगा |

पर क्या एक ही मन्दिर में दो से अधिक देवता नहीं रखे जाते ?हाँ,कई बार देवता के अनुसार पूजा का स्वरूप बदलना होता है |और तुम कौन हो है मुझे कहने वाले कि मैं तुम्हें भूल जाऊँ ?जब तुमने मेरी ज़िन्दगी से निकालने का फैसला ले ही लिया है तो कौन से अधिकार से मुझे आदेश देते हो ! मेरा हृदय मैं चाहे जिसे प्राण-प्रतिष्ठित करूँ |जिसे चाहे निकाल फेंकूँ |

फिर एक संदेश-“कभी ये मत सोचना कि तुम्हारे शरीर को नहीं पा सका इसलिए जा रहा हूँ |शरीर प्रेम की अभिव्यक्ति का एक अंश मात्र है |पर भावों और भावना के बिना ये अपूर्ण है |शरीर नश्वर है भावनाएँ चिर-स्थाई |मैंने तुमसे भावनाएँ प्राप्त की हैं और वो प्रेम का व्यापक रूप है | सिर्फ तुम्हारा शरीर मिलता तो शायद वो हवस होती या भूख जो बार-बार लगती है पर भावनाएँ कल्पतरु की भांति है |इन भावनाओं के माध्यम से तुम्हारा शरीर भी मेरा है और तुम्हारा मन भी |और यही मेरे प्रेम की विजय है |इसी से मेरा प्रेम सम्पूर्ण होता है |”

कहा तो था तुमने कि खुशी-खुशी शरीर दे सकोगी तो अच्छा है| पर मन पर कोई बोझ लेकर मुझ तक मत पहुंचना |तुमने ही कहा था कि बाज़ार में जिस्म की कमी नही और अपनी तरफ से कभी तुमने कभी दबाब भी नहीं डाला |पर तुमसे मिलते ही जाने कौन सी बूटी सूंघ लेती थी |तुम्हारे हाथ जब मेरे हाथ को थामते तो मेरा सारा अस्तित्व पिघलने लगता |तुम्हारे होठों के स्पर्श से मैं हवा में उड़ने लगती |तुमने कभी सीमा नहीं लांघी पर उस वक्त मेरे भीतर कोई सीमा नहीं रहती |मैं मानसून की बेकाबू नदी हो जाती जो बीच में पड़ने वाली सभी अड़चनों को ध्वस्त करती अपने सिन्धु में सम्पूर्ण होने को लालायित रहती |पर समाज ने लड़की पे इतने  बांध लगाएँ हैं कि दिशाए बेधने वाली सरिता गंदे नालों में तब्दील हो जाती है |ये दिशाहीन पानी कहीं भी खड़ा किया जा सकता है |लड़की होने का अर्थ ही उसका कौमार्य है |यही उसकी प्रथम सम्पदा,यही उसकी पूंजी है |अफ़सोस है मैं तुम्हें वो पूर्णता नहीं दे सकी |दोनों तरह से समाजिक बंधन ही जिम्मेवार रहा |अगर हमारे बीच जाति की दीवार ना होती तो - - - -

फिर संदेश आता है-“अगर तुम्हें नहीं पा सका तो इसका दोषी भी मैं स्वयं हूँ |इतनी शीघ्रता से मैंने परिस्थतियों  के सामने हार मान ली |पूर्व दायित्त्व का दबाब मुझ पर था| पर शायद शिशु को यथा-शीघ्र माता देने के बहाने पत्नी की रिक्तता को भरने के लिए में आतुर था |इसलिए मैंने तुम्हारे ढलने और बदलने का इंतजार नहीं किया और आज चाहे मेरी परिस्थति जैसी भी हो उसका सारा दोष मुझ पर है |यूँ तो मैंने बीच में खड़ी दीवार को हिलाने की कोशिश की |पर कभी इतना साहस नहीं बटोर सका कि दीवार पर चढ़ कर उस पार आ जाऊँ |इस तरह मैंने बस औपचारिकता निभाई और बहुत जल्दी टूट गया |इसलिए तुम स्वयं को दोष मत देना |

“तुमने कम से कम सबसे बात तो की |और तुम करते भी क्या ?मैंने तो इतना साहस भी नहीं दिखाया और जब तुमने पूछा तो भी तुम्हारा साथ देने के लिए आशान्वित नहीं थी |विषम परिस्थितियों के बावजूद तुमने मुझ पर से अपनी छाया नहीं हटाई |तुम्हारा घरौंदा बिखरते-बिखरते बचा |तुम्हारे घोसले की चिड़िया सब कुछ तहस-नहस करने को तत्पर थी|फिर भी तुम कृष्ण रूप में मेरे बने रहे |तुमने रुक्मणी को भी संभाला और इस बावरी राधा को भी |और अब-जब तुम अपने लोक लौटना चाहते हो तो मैं तुम्हारी मीरा बनके तुम्हारी उपासना क्यों ना करती रहूँ |तुम्हें इसमें क्या आपत्ति है !

अगला संदेश-“मुझे लगता है कि जब तक मेरी छाया तुम पर रहेगी तुम पूर्ण रूप से पल्लवित-विकसित नहीं हो सकती |परजीवी बनने का सबसे बड़ा खतरा यही है कि आश्रय खत्म होते ही परजीवी भी समाप्त हो जाता है अगर उसे  दूसरा आसरा ना मिले |अभी तुम पूरी तरह परजीवी नहीं बनी हो |मेरी कोटर से निकल कर जब तुम खुली जगह पर स्थापित होओगी तो तुम्हारी जड़ो को भरपूर पोषण मिलेगा और तुम धूप-हवा को अपने अनुसार प्रयोग करना सीख जाओगी |और तुम्हारा ये विकसित स्वरूप ही मेरे प्यार का विकसित स्वरूप होगा |अब मेरे लौटने की उम्मीद मत करना |

अपने हर छोटे-बड़े निर्णय के लिए मैं तुम्हारा मुँह देखती हूँ और अब तुम चाहते हो कि मैं स्वयं जीवन की विषमताओं को झेलूं |स्वयं अपनी समस्याएँ सुलझाऊँ |अगर तुमको लगता है कि इसी तरह प्रेम की पूर्णता है ,इसी तरह इसका विकास है तो अब मैं कभी तुम्हें परेशान नहीं करूँगी पर किसी और की छाया ! ये फैसला नितांत मेरा होगा |मुझे अपना विकास कैसे करना है ये फैसला भी फिर सिर्फ मुझे लेना है |जीवन की अंतिम साँस तक तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी और ये आँखे गोचर व् अगोचर में बस तुम्हारे ही दर्शन करेगी |

सिर्फ तुम्हारी-जया

सोमेश कुमार

मौलिक एवं अमुद्रित

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Comment by Saurabh Pandey on July 4, 2015 at 9:21pm

आपने मुग्ध कर दिया भाई सोमेश कुमारजी. जिस तरह से मनोभावों को शब्दबद्ध किया गया है वह चकित तो करता ही है, आशान्वित भी करता है कि आप इस विधा की बड़ी राह पर सुखद यात्रा करने वाले हैं. उदाहरण के तौर पर मैं आपकी कथा से यह उद्धरण ले रहा हूँ --

उफ़!कैसी जादुई बाते लिखते हो |किसी को भी सम्मोहित कर ले |किसी को भी अपने व्यक्तित्व से पागल बना दे ?किसी में भी प्यास जगा दे ?प्यास ही तो जगा कर गए हो मुझमें ! वर्ना मैंने कब सोचा था कि इन चक्करों में पड़ूगी |प्रेम की मृग-मरीचिका ,लैला-मजनू,हीर-राँझे के किस्से सब कोरी कल्पना लगते थे मुझे |पर अब महसूस होता है ये दंश |शायद काले बिच्छु का डंक भी ऐसी लहर नही देता |समझ ही ना सकी कैसे तुम मेरे व्यक्तित्व  को काबू करता चले गए और मेरे दिलो-दिमाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया |

वाह वाह वाह ! सोमेश भाईजी.

दो सुझाव अवश्य साझा करना चाहूँगा -
१. अपनी कथा के पंक्चुएशन को सार्थक करें. पॉराग्राफ के बीच जगह छोड़ें.
२. आजकल की कुछ कथाएँ पढ़ें. अच्छी साहित्यिक पत्रिकाओं में अच्छी कहानियाँ आती हैं. उनकी धार देखिये किधर की ओर बहाव में है. वैसे आपकी कथा की धार स्वयं में प्रवाही है.
३ मनोदशाओं को शाब्दिक करने के क्रम में आधुनिक कथाकारों में गीता श्री की या जयश्री कथाओं से गुजरना अच्छा होगा. मैं आपकी इस कहानी के सापेक्ष ही कह रहा हूँ. आपकी अब्तक पढ़ी सारी कहानियों ने प्रभावित किया है.

शुभेच्छाएँ.  

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