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न जाने किये कौन से रतजगे हैं /// हिंदी गजल (प्रयास जारी}

 

  मुतकारिब मुसम्मन सालिम

 122   122   122   122

 

न जाने  किये कौन से रतजगे हैं      

मुझे आप से तुम वो कहने लगे है

 

पिया है अमिय रूप वह जो तुम्हारा

पड़ा हूँ ,  सभी रोम रस में पगे हैं

 

हुआ  पाटली नैन  का जोर जादू

खड़े  इंद्र  गन्धर्व सब तो ठगे हैं

 

जिन्हें काम का देवता लोग कहते 

तुम्हे  देखकर काम उनके जगे हैं

 

हुआ है अभी  यह नया नेह बंधन

कि  लगते मुझे वे सगों से सगे हैं

 

पुछल्ले –

 

जलज यह नही, हैं विषैले विलोचन 

यही सोचकर प्रिय भ्रमर सब भगे हैं

 

चली आयी ख्वाबों में बारात उनकी

सुनो ध्यान से कितने गोले दगे हैं

 

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Comment by Samar kabeer on April 9, 2015 at 3:57pm
जनाब डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,आदाब,एक के बाद एक सुन्दर रचनाओं से मंच को नवाज़ रहे है आप,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
पुछल्ले का यह मिसरा:-
"यही सोचकर प्रिय भ्रमर सब भगे हैं"

बह्र से ख़ारिज हो रहा है,इसे इस तरह लिखेंगे तो सही हो जाएगा:-

"यही सोचकर प्रिय भ्रमर भगे हैं" |
Comment by Nazeel on April 9, 2015 at 11:40am

आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी  अच्छी रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारे।  आप  जैसे गुनीजनो की रचनाओ से हर दिन बहुत कुछ सिखने को मिल  रहा है । एक बार फिर से हार्दिक बधाई । 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 9, 2015 at 11:14am
आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी , बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल बनी है , बहुत बहुत बधाई , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 10:57am

आदरनीय बड़े भाई गोपाल जी ,  क्या बात है ! खूब सूरत गज़ल कही है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।

दो एक ग़ैर ज़रूरी सलाह दे रहा हूँ , अगर आपको भाई अच्छा लगे तो स्वीकार की जियेगा --

पिया है अमिय रूप वह जो तुम्हारा  ----    पिया है अमिय रूप जब से तुम्हारा  ( वह जो, बहर मिलाने का प्रयास लग रहा है )

पड़ा हूँ ,  सभी रोम रस में पगे हैं   ------     पड़ा हूँ ,  सभी रोम रस में पगे हैं    

हुआ है अभी  यह नया नेह बंधन          हुआ है अभी  यह नया नेह बंधन

कि  लगते मुझे वे सगों से सगे हैं  ----   मगर लग रहे  वे सगों के  सगे हैं -- ( कि, भी बहर मिलाने के लिये किया गया प्रयास लग रहा है )

सलाह अगर सही न लगे तो छोड़ दीजियेगा ॥ सादर !!

Comment by Shyam Narain Verma on April 9, 2015 at 10:54am

सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई।

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 12:44am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है 

आपके अभ्यास के क्रम में मेरा रिवीजन हो रहा है सर 

आप के अनुभव का तड़का ग़ज़लों में आने लगा है 

हिन्दी के तत्सम शब्दों का ग़ज़ल में सुन्दर प्रयोग .... इससे मुझे भी सीखने को मिल रहा है 

सादर 

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