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ग़ज़ल -नूर -मेरे यार तराज़ू निकले.

22/22/22/22 (सभी संभव कॉम्बीनेशंस)

यादो के जब पहलू निकले
जंगल जंगल आहू निकले.     आहू-हिरण
.
काजल रात घटाएँ गेसू
उसके काले जादू निकले.
.
जज़्बातों को रोक रखा था
देख तुझे, बे-काबू निकले.
.
चाँद मेरी पलकों से फिसला   
आँखों से जब आँसू निकले.
.
तेरे ग़म में जब भी डूबा, 
मयखानों के टापू निकले. 
.
भीग गया धरती का आँचल  
अब मिट्टी से ख़ुशबू निकले.
.
तौल रहे थे मेरी हस्ती
मेरे यार तराज़ू निकले.
.
रात हवेली फिर रौशन थी
बोतल निकली काजू निकले.
.
बात चली जब इन्कलाब की 
तुम सरकारी बाबू निकले.

हमें रिझाने इन्तिख़ाब में 
हिटलर और हलाकू निकले.

नूर अँधेरे से लड़ने को
कुछ मतवाले जुगनू निकले.
.
नूर 

मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 788

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 5:34pm

धन्यवाद आ. वर्मा जी ..

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 5:34pm

शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब. आप से दाद पाकर अभिभूत हूँ  

Comment by Shyam Narain Verma on March 30, 2015 at 4:58pm
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को "
Comment by Samar kabeer on March 30, 2015 at 11:27am
जनाब निलेश नूर जी,आदाब,हमेशा की तरह इस बार भी बहुत ख़ूबसूरत,मुकम्मल,शानदार ग़ज़ल पेश की है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें |
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 10:43am

धन्यवाद डॉ विजयशंकर जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 10:43am

धन्यवाद मिथिलेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 10:43am

धन्यवाद दिनेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 30, 2015 at 10:34am

शुक्रिया आ. डॉ श्रीवास्तव साहब 

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 30, 2015 at 7:04am
चाँद मेरी पलकों से फिसला
आँखों से जब आँसू निकले.
तौल रहे थे मेरी हस्ती
मेरे यार तराज़ू निकले.
बहुत खूब , आदरणीय नीलेश नूर जी , बधाई , सादर।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 29, 2015 at 9:16pm
आदरणीय नीलेश सर बहुत ही उम्दा और बेहतरीन ग़ज़ल हुई है। शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए।

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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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