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ग़ज़ल .........;;;गुमनाम पिथौरागढ़ी

२१२ २१२ २१२

वो वफ़ा जानता ही नहीं
इस खता की सजा ही नहीं


फिर वही रोज जीने की जिद
जीस्त का पर पता ही नहीं


शहर है पागलों से भरा
इक दिवाना दिखा ही नहीं


पूजता हूँ तुझे इस तरह
गो जहां में खुदा ही नहीं


खा गए थे सड़क हादसे
सारे घर को पता ही नहीं


मौलिक व अप्रकाशित


गुमनाम पिथौरागढ़ी

Views: 698

Comment

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Comment by Rahul Dangi Panchal on January 27, 2015 at 8:02pm
सुन्दर गजल भाई जी
Comment by gumnaam pithoragarhi on January 27, 2015 at 7:41pm

धन्यवाद दोस्तों आपकी समालोचना कुछ न कुछ सिखाती ही है ........... सौरभ जी  धन्यवाद जो आपकी कृपा दृष्टि हुई आपने समय दिया खुर्शीद जी आपका भी धन्यवाद जो आपने मेरी रचना की किमत बड़ा दी ........आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by Hari Prakash Dubey on January 27, 2015 at 7:12pm

आदरणीय गुमनाम भाई सुन्दर ग़ज़ल ...फिर वही रोज जीने की जिद ....जीस्त का पर पता ही नहीं....क्या बात है , हार्दिक बधाई !

 

Comment by Shyam Mathpal on January 27, 2015 at 2:31pm

Priya Gumnami Ji,

Sundar Gazhal ke liye bahut badhai.

Teri baat johte rahe,diwana bana diya

Log kahte hain,paagal begana bana diya

Comment by Shyam Narain Verma on January 27, 2015 at 1:22pm
बहुत सुन्दर गजल।  ढेरों दाद कुबूल करें। सादर
Comment by khursheed khairadi on January 27, 2015 at 11:18am

पूजता हूँ तुझे इस तरह 
गो जहां में खुदा ही नहीं

आदरणीय गुमनाम सर उम्दा ग़ज़ल हुई है |सादर अभिनन्दन |अगर आपकी इज़ाज़त हो तो मंच की दो अशहार की फरमाइश ख़ाकसार पूरी करदे |आपको पसंद न हो तो डीलिट कर दीजियेगा |क्षमा प्रार्थना के साथ बतौर नज़राना 

कारवां जा रहा है कहाँ 

सामने रास्ता ही नहीं 

आइना हाथ में है मगर 

वो इधर झांकता ही नहीं 

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 27, 2015 at 8:53am

वो वफ़ा जानता ही नहीं
इस खता की सजा ही नहीं
वफ़ा का न जानना क्या ऐसी ख़ता है जिसकी सज़ा तक न मुकर्रर हो सके ? भाई, मुझे ऐसा नहीं लगता. यह अवश्य है कि कुछ नियमों को न जानना क़नूनन गलत होता है. लेकिन वफ़ा का न जानना क्या ऐसी श्रेणी में आयेगा ? यह तो गुण है. मतला का ख़याल बहुत बढ़िया है इसलिए प्रस्तुतीकरण और बढिया हो सकता था, गुमनाम भाई.

फिर वही रोज जीने की जिद
जीस्त का पर पता ही नहीं
वाह क्या ख़याल है ! सानी को सीधा रखिये न - ज़िन्दग़ी का पता ही नहीं. यह शेर क्या और निखर नहीं उठेगा ?

शहर है पागलों से भरा
इक दिवाना दिखा ही नहीं
अरे वाह ! बहुत खूब ! पागल और दीवाना का अन्तर बढिया उभर आया है. बहुत खूब !

पूजता हूँ तुझे इस तरह
गो जहां में खुदा ही नहीं
वाह, ये क़ाफ़िरी ! बधाई-बधाई ! .. :-))

खा गए थे सड़क हादसे
सारे घर को पता ही नहीं
मैं तो इस शेर को कुछ यों करता भाई..
खा रहे हैं सड़क हादसे
क्यों महल को पता ही नहीं

प्रथम दृष्ट्या जो कुछ मुझे समझ में आया, निवेदित है. प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ, गुमनाम भाई.
शुभेच्छाएँ

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 27, 2015 at 12:49am
वो वफ़ा जानता ही नहीं
इस खता की सजा ही नहीं ॥
शानदार प्रस्तुति, बधाई गुमनाम पिथौरागढ़ी जी, सादर।
Comment by kanta roy on January 26, 2015 at 10:48pm
पूजता हूँ तुझे इस तरह
गो जहां में खुदा ही नहीं..... बेहतरीन अल्फाजों से सजी बडी ही खूबसूरत गजल ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 9:55pm

आदरणीय गुमनाम सर जी छोटी बह्र की बेहतरीन ग़ज़ल हुई हरेक अशआर उम्दा है. ये दो अशआर तो कमाल हुए है -

फिर वही रोज जीने की जिद 
जीस्त का पर पता ही नहीं

पूजता हूँ तुझे इस तरह 
गो जहां में खुदा ही नहीं.... दिल से दाद कुबूल कीजिये 

एक दो अशआर और होते तो ग़ज़ल मुकम्मल लगती . वैसे पांच अशआर है पर इस पाठक की दो अशआर की मांग निवेदित है.

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