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बताओ जरा क्या तुम इतने बड़े हो?(ग़ज़ल 'राज' )

१२२ १२२ १२२ १२२

नहीं पाँव दिखते जहाँ पर  खड़े हो

बताओ जरा क्या तुम इतने बड़े हो?

 

उड़ाया जिसे ठोकरों से हटाया

उसी ख़ाक के तुम छलकते घड़े हो

 

जमाना नया है नयी नस्ल आई

पुराने चलन पर अभी तक अड़े हो

 

झुकी कायनातें झुका आसमां तक

न सोचो खुदी को फ़लक पे जड़े हो

 

वही रास्ते हैं वही मंजिलें हैं

वही कारवाँ है मगर तुम छड़े हो 

 

जहाँ है मुहब्बत वहीँ हैं उजाले

निहाँ तीरगी है जहाँ गिर पड़े हो  

 

कभी आके लेलो जरा साँस बाहर

कहीं घुट न जाए गुमाँ में गड़े हो 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by गिरिराज भंडारी on November 2, 2014 at 10:56pm

जमाना नया है नयी नस्ल आई

पुराने चलन पर अभी तक अड़े हो

जहाँ है मुहब्बत वहीँ हैं उजाले

निहाँ तीरगी है जहाँ गिर पड़े हो  --------------  बहुत खूब आदरणीया राजेश जी , बढिया ग़ज़ल और इन अश आर के लिये दिली बधाइयाँ ।

Comment by somesh kumar on November 2, 2014 at 12:47pm

सुंदर ,जमाना नया है एवं झुकी कायनाते ये शेर ज़्यादा अच्छे लगे,पर सम्पूर्ण गज़ल अच्छी लगी,अपने बड़प्प्न के अहसास में अकेले पड़ जाने को सुंदर शेरों द्वारा प्रस्तुत करने के लिए ,बधाई ,आदरणीया 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 2, 2014 at 9:02am

बहुत ही खुबसूरत गजल, आदरणीया राजेश दीदी. सभी शेर बहुत पसंद आये. दिली बधाइयाँ स्वीकार कीजियेगा


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 2, 2014 at 7:20am

आदरणीया राजेश दीदी बहुत सुंदर ग़ज़ल है सारे अशआर अच्छे लगे


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 1, 2014 at 11:22pm

बैद्यनाथ सारथि जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई ,तहे दिल से शुक्रिया आपका. 

Comment by Saarthi Baidyanath on November 1, 2014 at 10:28pm

बहुत ही अच्छी ग़ज़ल हुई है महोदया ...

जमाना नया है नयी नस्ल आई

पुराने चलन पर अभी तक अड़े हो....! सारे शे'र अच्छे लगे ! बहुत बधाई !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 1, 2014 at 6:36pm

प्रिय छाया शुक्ला जी ,आपको ग़ज़ल व् उसके ये शेर पसंद आये मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभार आपका. 

Comment by Chhaya Shukla on November 1, 2014 at 6:25pm

बढिया तंज दिखा आपका बधाई आपको इस खूबसूरत गजल के लिए -
प्रिय शेर -

जहाँ है मुहब्बत वहीँ हैं उजाले

निहाँ तीरगी है जहाँ गिर पड़े हो  

 

कभी आके लेलो जरा साँस बाहर

कहीं घुट न जाए गुमाँ में गड़े हो


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 1, 2014 at 5:24pm

आ० डॉ० विजय शंकर जी ,इस उत्साह वर्धन हेतु तहे दिल से आभार आपका. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 1, 2014 at 5:23pm

आ० सुशील सरना जी,आपको ग़ज़ल पसंद  आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार आपका. 

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