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क्या अब भी // रवि प्रकाश

क्या अब भी पुलिनों तक आते हैं सब धारे,
क्या सूखी सिकता में मोती मिलते होंगे?
अँधियारी रातों में गाते हैं सब तारे,
क्या उथली नींदों में सपने खिलते होंगे?
.
हलचल बढ़ जाती है क्या कुछ पदचापों से,
अपना कोई कोना हाथों से गिरता है?
कटता एकाकीपन अस्फुट आलापों से,
सहसा अब भी कोई सुधियों में तिरता है?
.
रातों की निर्मितियाँ दिन में ढह जाती हैं,
लज्जा की लाली क्या अधरों को सिलती है?
क्या अब भी सीने में टीसें रह जाती हैं,
तृष्णा के छोरों पर मृगतृष्णा मिलती है?
.
डगमग नौकाओं को क्या तट मिल जाते हैं?
क्या अब भी प्यासों को पनघट मिल जाते हैं?
.
-मौलिक एवं अप्रकाशित
-30.10.2014

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Comment by गिरिराज भंडारी on November 1, 2014 at 8:34pm

बहुत खूब ! आदरणीय रवि भाई , बधाइयाँ ।


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Comment by rajesh kumari on November 1, 2014 at 5:55pm

क्या अब भी पुलिनों तक आते हैं सब धारे,-------यहाँ धारे की जगह आती है  हर धारा या आती हैं सब लहरें करें तो ज्यादा बेहतर होगा 
क्या सूखी सिकता में मोती मिलते होंगे?
अँधियारी रातों में गाते हैं सब तारे,
क्या उथली नींदों में सपने खिलते होंगे?-----कमाल का बंद 

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...हार्दिक बधाई आपको 

Comment by Ravi Prakash on November 1, 2014 at 12:14pm
Umesh ji bahut shukriya..
Comment by Ravi Prakash on November 1, 2014 at 12:13pm
Hardik dhanyawad Ajay Sharma ji itni sarahna ke liye...
Comment by umesh katara on November 1, 2014 at 8:37am

waaaaaaaaah waaaaaaaaaaaah    achchhi rachna sahib

Comment by ajay sharma on November 1, 2014 at 12:20am

sateek ....prashn se bharpur ....bebaak samvednayo se bhare ...kalkal bahta hue geet ko meri shubkamnaye .......bahut khoob ....

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