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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 42 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !
 
दिनांक 18 अक्टूबर 2014 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 42 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.

इस बार प्रस्तुतियों के लिए मनहरण घनाक्षरी छन्द का चयन हुआ था.  

आयोजन में कुल 11 रचनाकारों की 14 रचनाओं का आना बहुत तो नहीं किन्तु कम बड़ी बात नहीं है.

रचनाओं और रचनाकारों की संख्या में और बढोतरी हो सकती थी. लेकिन कारण वही सामने है - सक्रिय सदस्यों की अन्यान्य व्यस्तता. 

इस कारण ऐसे सदस्य भी आयोजन में प्रस्तुति और प्रतिभागिता से वंचित रह गये जिन्होंने विगत में एक-से-एक घनाक्षरियाँ की हैं ! नये सदस्यों को जान कर आश्चर्य होगा, कि इन सदस्यों ने रचनाकर्म ही नहीं किया है, बल्कि आयोजनों में घनाक्षरियों के ही माध्यम से प्रतिक्रिया-रचनाओं द्वारा संवाद भी किये हैं !

इधर प्रबन्धन के सदस्यों में भी आदरणीय योगराजभाईजी तथा भाई गणेशजी अपने-अपने कार्यालयॊं में अति व्यस्त हैं. भाई राणा अपनी व्यस्तता चाह कर भी नहीं बता सकते क्यों कि वे आर्म्ड फोर्स में हैं. आदरणीया (डॉ.) प्राची सिंहजी स्वास्थ्य लाभ कर रही हैं. उनका स्वास्थ्यलाभ हमसभी के लिए आश्वस्तिकारी है.
इन परिस्थितियों में कार्यकारिणी के सदस्यों का आयोजन में गंभीरता और दायित्व के साथ भागीदार होना अन्यान्य सदस्यों के प्रोत्साहन का कारण बनेगा, इसमें दो राय नहीं है.

मैं स्वयं भी आयोजन के अंतिम दिन फ़ैज़ाबाद (अयोध्या) गया था जहाँ पुस्तक मेले के दौरान मुशायरा-सह-कविसम्मेलन आयोजित था. आयोजक-मण्डल द्वारा मैं निमंत्रित था.  

इसी कारण, अपनी प्रस्तुति पर आदरणीय अखिलेश भाईजी की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण टिप्पणी (शिकायत) का समय से यथोचित उत्तर न दे सका. इसका मुझे हार्दिक खेद है.
आदरणीय अखिलेशभाईजी की शिकायत कुछ यों थी --

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मनहरण घनाक्षरी में आपने (यानि मैंने) उदाहरण स्वरूप स्वरचित जो छंद प्रस्तुत दिये, उसमें पदांत कुछ इस प्रकार से है और पढ़नें में आनंद भी आया ..... दाह से,  आह से,  उछाह से,  प्रवाह से,  छात्र हो,  कुपात्र हो,  मात्र हो , गात्र हो ।

चित्र से काव्य तक छंदोत्सव में हम सब ने भी प्रयास किया कि पदांत चारों पंक्तियो में अलग अलग शब्दों से हो और तुकांतता भी बनी रहे। मैंने भी दो- तीन दिन खूब प्रयास किया तब कहीं संभव हो पाया। लेकिन छंदोत्सव में आपकी घनाक्षरी बड़ी सहजता से  देखिये, देखिये.... वाहवा, वाहवा.....  कहते पूर्ण हो गई । मज़ाक स्वरूप कहा जाये तो आप हमें चौराहे पर छोड़ गये और खुद पतली गली से (शार्ट कट) निकल शीघ्र मंज़िल तक पहुँच गये । मैं तो चौराहे पर सही दिशा / राह की तलाश में तीन दिन भटकता रह गया ।
आदरणीय, क्या दोनों ही मनहरण घनाक्षरी के विशुद्ध रूप हैं । वैसे प्रवाह और पढ़ने का आनंद तो चार अलग-अलग शब्दों की तुकांतता में ही है । मेहनत का फल मीठा भी तो होता है । 

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आदरणीय अखिलेशभाईजी से मेरा सादर निवेदन यही होगा, कि, नहीं भाईजी, एकदम से ऐसा नहीं है.. मैं किसी ’पतली गली’ आदि से निकलने में विश्वास नहीं करता.
रचनाकर्म मेरे लिए कभी ’पतली गली’ को अपनाकर पाठकों-श्रोताओं को भरमाने या हठात चकित कर देने का माध्यम नहीं रहा है. मैं जब ’सतत प्रयास दीर्घकाल तक’ की बातें करता हूँ, तो यह वाक्यांश मुझ पर कितना लागू होता है, यह अवश्य ही आप समझ नहीं पाये हैं.

मेरे लिए सद्यः समाप्त आयोजन की प्रस्तुति भी उतनी ही प्रिय है जितनी कि कोई और प्रस्तुति हो सकती है. क्योंकि, इसके रचनाकर्म में भी ’धारणा-ध्यान’ उतना ही गहन करना पड़ा है जितना अन्य किसी तथाकथित ’उन्नत’ रचना पर करना पड़ता है. यदि ऐसा नहीं होता तो आयोजन की मेरी उक्त रचना में अनुप्रास अलंकार, यमक अलंकार, शाब्दिक अभिव्यंजनाएँ या तथ्यात्मक विवरणों के पद्यानुभाव आदि के उदाहरण संभव नहीं हो पाते, जैसे कि उक्त रचना में, चाहे जैसे भी हों, संभव हो पाये हैं, जिनका संदर्भ ले कर सुधी-सदस्यों ने मुझे शाबासी दी है.
 
सर्वोपरि, सादर निवेदन करूँ तो, आदरणीय अखिलेश भाईजी, आप रचना-प्रक्रिया में अभी वस्तुतः रचनाओं के विन्यास से परिचित हो रहे हैं. आप रचनाप्रक्रिया के दौरान मन में बिना किसी अन्यान्य भावों को आने देने के यों ही गंभीर रहें. रचनाप्रक्रिया को यों ही समय देते चलें. अन्यथा जिस तुकान्तता को आप अत्यंत सहज या अत्यंत क्लिष्ट की श्रेणी में बाँट रहे हैं, वह मात्र आपकी सोच के कारण है. शब्दों की जानकारी के अलावा भी रचनाकर्म की गहनता बहुत कुछ मांगती है, आदरणीय.  आपने  देखिये-देखिये   या वाहवा-वाहवा  आदि तो देख लिये, लेकिन इसी तुकान्तता की महीनी नहीं देख पाये. जिसका अनुसरण किया गया है. अभी आपके लिए ऐसा देख पाना संभव भी नहीं था, आदरणीय,  हमें भान है. किन्तु, प्रयासरत होना आवश्यक है.
अब मैं चाहूँगा, कि, इस ओर मैं स्वयं आपका ध्यान आकृष्ट न कर किसी सुधी-सदस्य से अपेक्षा करूँगा, कि इस ओर प्रकाश डाले. यही समीचीन होगा.

काश, प्रबन्धन के सदस्य इतने व्यस्त न होते, अन्यथा, आदरणीय अखिलेश भाई के इस संशय का निराकरण वहीं का वहीं हो जाता. मैं इस तथ्य को इतना महत्त्व क्यों दे रहा हूँ ? कारण है, कि, रचनाकर्म के प्रयासों या मंच की प्रक्रिया को लेकर किसी के मन में गलत भाव कत्तई न व्यापे.  

अंत में यह निवेदन अवश्य करूँगा, आदरणीय अखिलेशभाईजी, कि, जिन परिस्थितियों में मैं आयोजनों के लिए रचनाकर्म करता हूँ, वह कोई आदर्श स्थिति नहीं है. कई बार तो आयोजन प्रारम्भ होने के कुछ मिनट पहले ही मेरा कार्य पूर्ण हो पाता है. इस तथ्य का अनुमोदन व्यक्तिगत रूप से मुझे जानने वाले अवश्य करेंगे.  ऐसा भी अपनी व्यस्तता के कारण होता है.

एक बात मैं पुनः अवश्य स्पष्ट करना चाहूँगा कि ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव आयोजन का एक विन्दुवत उद्येश्य है. वह है, छन्दोबद्ध रचनाओं को प्रश्रय दिया जाना ताकि वे आजके माहौल में पुनर्प्रचलित तथा प्रसारित हो सकें.

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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१. सौरभ पाण्डेय
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भारतीय रेल के कमाल हैं विधान सब, तिसपे धमाल ये सवारियों का देखिये
खिड़कियाँ टिकटों की खुली रहें रात-दिन, बढ़ती सवारियों का बाढ़ होना देखिये
एक नहीं सीट, पर किसको है ग़म यहाँ, छत पे हैं मस्त ये जुगाड़ जरा देखिये
दिखे न उपाय कहीं, घुसे कोई गाड़ियों में, कूद-कूद छेंक रहे छत-कोना देखिये !!

देख के कमाल आज चकित न होइये, कि, जोश भरी नारी आज धौंकती हैं, वाहवा !
धरती पे धरती थीं पग धीरे धारिणी जो मार के छलाँग आज धाँगती हैं, वाहवा !
ललना को गोद लिये बाबूजी हैं चुपचुप, माताराम गाड़ी-गाड़ी लाँघती हैं, वाहवा !
जिन्दगी की दौड़ हो या रोज का हो पग-ताल, महिलायें खूब ताल ठोंकती हैं, वाहवा !

गाँव का सिवान हो या खेत का पड़ान कोई, दूर देस जा रहे, न मड़ई लगा रहे
गाड़ी में हैं आदमी ज्यों बोरे में अनाज भरा, बचे हुए सारे लोग छत पर आ रहे
आज के विकास का है चित्र ये विचित्र मिला, किनको दिखा रहे हैं, किनको बता रहे !
पेट में है आग लगी, होंठों पे है प्यास बड़ी, ज़िन्दग़ी ने बोझ दिया भार वो उठा रहे !!
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२. श्री अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
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( 1 )...........                                                                      
देखो इंसानों का रेल, जहाँ होता है ये खेल, ढोरों जैसे ठूँसने से, श्वाँस भी दुश्वार है।     
ज़्यादा गाड़ियाँ चलाते, ना ही बोगियाँ बढ़ाते, कौन देखे कौन करे, अँधी सरकार है॥ 

ये है भारतीय रेल, जो निकाल देगा तेल , हर यात्री की पीड़ा को, कहना बेकार है।

हर बात है अशुभ , लेकिन “यात्रा हो शुभ”, कहे रेलवे विभाग, ये शब्द सौ बार है॥          

( 2 )............
खूब ठेलम ठेला है , चढ़ना भी झमेला है , रेल यात्री रोज झेलें , यही परेशानियाँ ।  
क्या धक्का-मुक्की रेला है, मानो कुंभ का मेला है, रेलवे कुशासन की, है यही कहानियाँ॥  
ये रेलवे की चाल है, कमाई का सवाल है, भरते काले कोट में, घूस की कमाइयाँ ।    
विभाग मालामाल है , फिर भी बुरा हाल है , हो रही अंधेरगर्दी , रोज बदनामियाँ ॥         

( 3 ).............
जवान बूढ़े बच्चे हैं , भोले और उचक्के हैं , नारी अति साहसी हैं, मन में श्री राम है।    
हाथ बढ़ा कह रही , न छोड़ना मुझे कभी, मैं तुम्हारी राधिका हूँ , तू ही मेरा श्याम है॥ 
बोगियों के अंदर हैं , छत पे हैं. बाहर हैं , जान की है चिंता किसे, कौड़ियों के दाम हैं।   
कौन गिरा. मरा कौन, लोग देखते हैं मौन , जाने किस अभागे की, आखिरी ये शाम है॥

(संशोधित)
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३. श्री सत्यनारायण सिंह
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साहस उछंग धार, जोश अंग भरे नार इंजन सवार होके, छत पग धारती
एक युवा हतप्रभ देख रहा लिए शिशु, अन्य युवा दीन जाकी, मूक आँख ताकती   ..  (संशोधित)

छप्पर का टेक लिए, तीसरा बढाए हाँथ, आफत में फँसी नार, नर कर थामती
रेल की सवारी न्यारी, दृश्य है रोमांचकारी, जोखिम का खेल इसे, दुनिया है मानती

सफर सुहाना रेल, रहा नहीं आज देश, कैसे समझाऊँ पड़ा, मन पसोपेश में
खचाखच भीड़ भरी, दौड़ रहीं रेल सारी, यातनायें सहे भारी, सभी कमोवेश में
लगी देख आज होड़, लोग गाँव देश छोड़, शहर नगर जा के, बसे दूरदेश में
उदर निर्वाह चाहे, देशाटन हेतु कहें, मन पंछी का ठिकाना, बना परदेश में

तीज औ त्यौहार आया,अंग में उमंग छाया, चहुँ ओर आज चढ़ा, जश्न का खुमार है

ख़ुशी और उमंग में, स्वजन लिए संग में, पर्व को मनाने आज, देखचली नार है ....   (संशोधित)
झेलूँ सारी परेशानी, नहीं सहूँ आना कानी, मश्किलों का सामना तो, नित व्यवहार है
संकटों को करें बिदा, दृढ़ता के साथ सदा, रेल और जीवन का, यही सत्य सार है
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४. डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
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प्रथम प्रस्तुति

उत्तर मध्य रेलवे की एक गाड़ी शेड में या प्लेटफार्म पर है शान्ति से खडी हुयी I
बोगी बीच छत पर चढाया जब बेटो को मुखिया की लालसा भी थोडा सा बड़ी हुयी I
पीछे नवजातक को लिए खड़ा बेटा एक आगे वाले की भी कुछ हिम्मत कड़ी हुयी I
साहस की मूर्ति यह भारतीय नारी भी है देखो दृढ-व्रत कैसे निज में अड़ी हुयी I

सभी जन यात्रिगण टिकट लिए हैं सब चाहते जगह वह बोगी बीच पा सके I
एक आदर्श शहरी की गरिमा की तरह वे भी अपने गंतव्य प्रिय तक जा सके I
रेल का विभाग बांट देता है टिकट किन्तु देता न जगह जहाँ सभी जन आ सके I
ऐसे क्लास टू से भला जनता का होगा कब जिसमे सामान सा न आदमी समा सके I

तब छत पर चढ़ यात्रा करने के हित होता है विवश देश और आम जन है I
रेल मंत्रालय इस सत्य से नयन मूँद होते प्रति वर्ष लाभ निज में मगन है I
और यह विडंबना भी साथ में गरीब के उसको उतारते हैं छीन लेते धन है I
ऐसे नीच टी टी ई हैं रेल के सिपाही गण नोचते जो नित्यमेव मृतक कफ़न है I

द्वितीय प्रस्तुति

मिलता है प्राण- तत्व जल का सहारा जब होती है सुरभिमय रसयुक्त क्यारियां I
सागर सलिल नील नभ के वितान पर नाचती हैं मेघ बन इंद्र की सवारियां I
स्नेह और सहमति की टेक पर होती है राग और रागिनी के बीच मनुहारियां I
यदि मिल जाये दृढ हाथ का सहारा तब घाट-अवघट पार करती है नारियां I

साफ दिखता है पति होता है आधार रूप अधिकर्ण कारक सा व्रत में तना हुआ I
हाथ से है थामे हुए भार अवलंब सारा दृढ कर्म योगी निज कार्य में बना हुआ I
तीन पुत्र प्रस्तुत है माता की सहायता को चौथा अग्रज के हाथ विमन-मना हुआ I
माँ को है कराता पार बड़ा पुत्र हाथ थाम मंझला चुप देखता स्नेह में सना हुआ I

सोचता है मन मेरा दृश्य को विलोक कर निरधार ऐसे लघु पथ का किया गया I
आपदा भी कोई ऐसी आयी नहीं दीखती है निर्णय विचित्र फिर ऐसा क्यों लिया गया ?
कुछ भी अघट्य अभी घट सकता है यहाँ ध्यान इस सत्य पर क्यों नहीं दिया गया ?
शीघ्रता की लालसा में कई बार इसी भांति जान-बूझ कर विष-संकट पिया गया I
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५. श्री रविकर
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गाँव गाँव में बिके, स्वाद मनुज कुल चखे, नमक देश का यही, रेल पर लिखे हुवे ।
दाँव पाँव है सधा, हाथ हाथ में बँधा, नारि शक्ति-रूपिणी , आसमान को छुवे ।
भीड़-भाड़ पर्व की, बात नहीं गर्व की, इंतजाम जाम हैं, प्रजा ख़ाक छानती ।
हाव-भाव विस्मयी, साथ साथ हर्ष भी, नवज मातृ से पृथक, मातु नहीं मानती ।
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६. श्री लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
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प्रथम प्रस्तुति

यात्रा हो चारधाम या कुम्भ का स्नान करना, रेल में भी आदमी स्थान को तरस रहे

जोश में है लोग सब, पुन्य भी कमाना चाहे, लोग देखो करते सीट का जतन रहे |

लम्बी लम्बी कतारों में, खड़े इन्तजार करे, टिकट खरीदने की जल्दी सभी कर रहे

रिश्तेदारों की भी भीड़,आती बिदा करने को, समझे भाग्यशाली जो यात्रा पर जा रहे ||

 

टिकट तो मिला पर, सीट का अकाल देख, देखो लोग रेल की छत पर चढ़ रहे

जोश और जूनून का अजीब नजारा देखो जिन्दगी की जोखिम अनदेखी कर रहे |

लिए गोद में जो बच्चा जोश भी भरमार है मृत्यु से ये युवक ज़रा भी न डर रहे

माता में भी जोश भरा, लगाने छलांग वह, हाथ थामे युवक प्रयास में लग रहे ||

 

अजब नजारा देखो, झेलते है परेशानी, नित यहाँ यह तो जनता में उन्माद है

रेलों का है जाल बिछा,भरी दिखे खचाखच, दुनिया में करते भ्रमण में संवाद है |

तीर्थ धाम सैकड़ो है, दर्शनीय स्थान खूब, आते रहे सैलानी ह्रदय में आनंद है

कष्ट झेल रहे सभी, गाँव गाँव से आ रहे,सफर रेल का ये ही जीवन का छंद है ||

(संशोधित)


द्वितीय प्रस्तुति

देखा नियम तोड़ते कोई भी नहीं टोकते आँखे सब मूंदते देखो क्या कमाल यहाँ
शासन का नाम नहीं,हाकिम को भान नहीं भेड़ चाल हो रही किसे न मलाल यहाँ
टिकिट लिए हम भी, खाली सीट ढूंढ रहे,कोई भी न ध्यान दे देखा बुरा हाल यहाँ
ज़रा देखो तो इनको, मरने का काम करे,डिब्बें की छत चढ़े, मचा है धमाल यहाँ ||

जानपर ये खेलते, होंसले भी रख रहे, नारी भी चढ़ रही, ऐसे मुश्किल पाथ में ||
बच्चा इसके गोद में, युवक लगे साहसी, कुछ लोग और भी खड़े इनके साथ में      ....    (संशोधित)
इंजन से डिब्बे पर,कूदने को है माता भी, हिम्मत से हाथ को अन्य के देती हाथ में
महिमा देखो ट्रेन की, कौतुहल सा दृश्य ये मुश्किलों से सामना विश्वास रखे नाथ में
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७. श्रीमती राजेश कुमारी
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क्षमता से भारी-भरकम लेके सवारियाँ,किसी स्टेशन पे रुकी लोहपथगामिनी!

डिब्बों में मारामारी ठूँस-ठूँस भरके चली,भीड़ से बेहाल करे भोर हो या यामिनी    (संशोधित)

मिले नहीं सीट कोई छत पे छलांग रही ,होकर निडर लाल साड़ी वाली कामिनी!
दूजे बाजू उसका लाल डिब्बों का अंतराल ,ममता की डोर बनी द्रुत गति दामिनी!

आबादी है बढ़ रही रेलवे विधान वही,यही तो विडंबना है भारत महान की!
एक ओर मजबूरी दूजी ओर धोखाधड़ी , छत पे सफ़र करें चिंता नहीं जान की !      (संशोधित)
लेना न टिकट चाहें चोरी से जुगाड़ करें,इनको परवाह कहाँ मान सम्मान की!
रेलवे विधान में प्रशासन सुधार करे,तब हो बुलंद ध्वजा मेरे हिन्दुस्तान की!
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८. श्री अमित कुमार अमित
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चित्र की विचित्रता को आप नहीं जानते हो चित्र है विचित्र आप बात मेरी मानिऐ ।।
भिन्न-भिन्न प्राणी यहाँ, भिन्न भिन्न बाणी यहाँ भिन्न भेष-भूषा भिन्न भाषाएँ भी जानिऐ।।
नारी है विशेष यहाँ बाकी सब शेष यहाँ बे-फ़िजूल आप अवशेष मत छनिऐ।।
देश का नमक जिस मानव ने खाया नहीं आप उसे कभी देश वासी मत मानिऐ ।।
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९. श्री खुर्शीद खैराडी
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प्रथम प्रस्तुति

अफरा-तफरी हर ,और मची है साथियों जित देखो उत ठौर ,मचा कोहराम है |
इंजिन से चढ़ कर ,कूद रहें डिब्बे पर जोखिम में जान सब ,डाल रहें आम है|
रूल तोड़ रहे सब, मानता हूं चलो पर सुरक्षा का कहो यहाँ ,कहीं इंतजाम है |
अनुशासनहीन है ,शासन-अवाम सब भारत जगत भर में यूं बद नाम है | १.

छत रेल गाड़ी की है ,कूद-फांद मत करो भीड़ बड़ी होगी किंतु ,यह राह नहीं है |
ख़ुद की तो डालती हो ,जान खतरे में माता शिशु की जान की भी क्या ,परवाह नहीं है |
नारी नर से हो आगे ,हर क्षेत्र में चाहिए साथ मिल तोड़े रूल ,यह चाह नहीं है |
भारत जगत गुरु ,बनेगा बताओ कैसे ? अज्ञान की यहाँ पर, कोई थाह नहीं है | २.

चढ़ रही नारी वहाँ ,मौत-भय त्याग कर चढ़ना दुष्कर दिख ,रहा नर का जहाँ |
यार्ड है या शेड कोई ,अचरज मत करो भारत है यह ऐसे ,दृश्य आम है यहाँ |
उजागर त्रुटि हुई ,आमजन की तो माना सरकारी गफ़लत भी है साथियों निहाँ |
नमक देश का सब देश वासी खाते होंगे शान देश की का धयान ,रखता कौन कहाँ ? ३.

द्वितीय प्रस्तुति

एक साथ नारी-नर ,कूद-फांद छत पर गोद एक शिशु धर,रेलयान पर चढ़े |
देहाती है सारे लोग ,नहीं बना सीट योग जैसे तैसे कष्ट भोग,डटे यहीं अनपढ़े |
खाय देश का नमक ,चार-पांच अहमक  देश-शान की चमक,करने धूमिल बढ़े |
हाथ छुट जाये गर, गिरे सब भोम पर टांग टूट फूटे सर ,दोष रेल पर मढ़े | ..........१

भारतीय रेल खड़ी ,ज़ोरदार भीड़ पड़ी लोगों को है जल्दी बड़ी ,छत पर चढ़ रहे|
टिकट लिया है धर, और जरुरी सफ़र विवश बिचारे नर ,विपदा नारी भी सहे |
गोद बाल-गोपाल है, देहाती चाल-ढाल है बीच छतों के काल है ,सितम व्यवस्था ढहे |
नमक देश का लिखा ,विज्ञापन इक दिखा सुनो बात सब सखा, चित्र हाल सब कहे |.........२

श्योपुर को जाने वाली, ट्रेन नहीं आज खाली छत पे ठौर जमाली, चलने को भी रेल है |
होशियार सब बने, छत पर सब जने ताल ठोक कर तने, देहाती कोई खेल है |
फँसे यहाँ फ़ोकट में, जान डाल संकट में और पड़े झंझट में, दंड कृत्य का जेल है |
उत्तर-मध्य रेलवे, सीट नहीं नोट लवे करतब तो देखवे, दौड़ती रवे मेल है |........३
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१०.  श्री अरुण कुमार निगम
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रेल के नियम तोड़, प्राण का भी मोह छोड़ एक दूसरे से होड़ , वाह जी कमाल है
बोगियों की छत चढ़ें, अजब मिसाल गढ़ें दोष दूसरों पे मढ़ें , गजब धमाल है
अपने ही रोकें नहीं, अपने ही टोकें नहीं अपनों की सोचें नहीं, यही तो मलाल है
बरसों से अड़ा देखो, चिंतनीय बड़ा देखो मुँहबाये खड़ा देखो , सामने सवाल है
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११. श्री रमेश कुमार चौहान
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रेल के रेलम पेल में, जल्दबाजी के खेल में, छत पर चढ़ रहे, देखो नर नारीयां ।
जान जोखिम में डाल, गोद में बच्चे सम्हाल, दिखा रहें हैं वीरता, दक्ष सवारीयां ।।
अबला सबला भई, दुर्गावती लक्ष्मी बन, लांघ रही वह बोगी, छत में ठौर पाने ।
कौन इन्हें समझायें, जीवन मोल बतायें, क्यों करते नादानी, रेल के दीवाने ।।

रेल-रेल भारतीय रेल, रेल है ऐसा जिसके़, अंदर को कौन कहे, छत भी गुलजार है ।
बेटिकट बेखटका, रेलवे को दे झटका, कह रहे छाती ठोक, रेलवे बीमार है ।।
भारतीय रेल पर, टिकटों के खेल पर, दलाल मालामाल है, जनता लाचार है ।
फस्ट सेकण्ड स्वीपर, ए.सी. के अनुपात में, लगें हैं जनरल का, और दरकार है ।।

यहां-वहां जहां-तहां, देख सको जहां जहां, देखो तुम वहां वहां, समस्या ही खड़ा है ।
हर कोई जानता है, नही कोई मानता है, समस्या पैदा करने, आदमी ही अड़ा है ।।
समस्या को बुनते है, समस्या से जुझते है, समस्या में रहते हैं, लोग बन समस्या ।
उलझन को जो हेरे, उलझन का दास है, दास को सुलझाना, खुद एक समस्या ।।
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Replies to This Discussion

आदरणीय अरुण भाईजी ,

आपके इस मनहरण घनाक्षरी छंद ने सचमुच मन हर लिया। ओबीओ मंच ही नही पूरा वातावरण सुगंधमय हो गया। इसकी खुशबू धमतरी तक आ रही है॥

आपको सपरिवार ज्योति पर्व दीपावली और नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ मेरी कुछ पंक्तियाँ ........

ओबीओ प्रबंधन टीम के सभी सदस्यों एवं ओबीओ परिवार के हजारों सदस्यों को भी सपरिवार ज्योति पर्व की ढेर सारी शुभकामनायें, बधाइयाँ.................. 

धन, वैभव, सम्मान मिले, भंडार रहे न खाली।

सद्.भाव प्रेम आनंद बढ़े, ऐसी हो शुभ दीवाली॥

स्वस्थ रहें दीर्घायु बनें, परिवार सुखी सम्पन्न रहे।

ज्योति प्रेम की जलती रहे, सौ बरस रहे खुशहाली॥

सब के लिए शुभकामना, हर घर को मेरी बधाई।

हर दिन एक त्योहार लगे, हर रात लगे दीवाली॥

परम आ. सौरभ जी सादर प्रणाम,

         आदरणीय   वैसे तो  संशोधन हो गया है किन्तु ख़ुशी  को हर्ष में परिवर्तित करना क्या उचित होगा. कृपया इस सन्दर्भ में मार्गदर्शन कीजियेगा.

सादर 

आदरणीय सत्यनारायणजी,

गेयता के हिसाब से खुशी के साथ और का लघु रूप प्रयुक्त हो रहा है लेकिन हर्ष के साथ और का उच्चारण पूरा हो रहा है. ऐसा होना कोई बड़ी समस्या नहीं है. लेकिन, फिर तो,  इस हिसाब से तो कई-कई पद मोडिफाई होने लगेंगे, आदरणीय.

जैसे,

संकटों को करें बिदा, दृढ़ता के साथ सदा, रेल और जीवन का, यही सत्य सार है

को यों देखें --

दृढ़ता के साथ सदा, संकटों को अपनायें, जीवन औ’ रेल का तो, यही सत्य सार है 

उपरोक्त परिवर्तन को समझने का प्रयास करें, आदरणीय.

सादर

सादर धन्यवाद आ.

     आशा है आपका अनमोल मार्गदर्शन  भविष्य में यूं ही प्राप्त होता रहेगा और छंद विधा की  तकनीकी बारीकियों को  अधिक से अधिक  आत्मसात करने  का भविष्य में भरसक  प्रयत्न करूंगा  आदरणीय 

 सादर 

आ० सौरभ भाई जी "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 42 की समस्त प्रविष्टियों के संकलन के लिए हार्दिक बधाई |

लांग रंग देखकर त्रुटी सुधार के प्रयास से जरूर हम जैसी लोग लाभान्वित होंगे | मैंने भी उस वक्त प्रयास किया था, प्रथम

प्रस्तुति में 2-2 पंक्तियों के तुकांत की त्रुटियाँ सुधार आपके अवलोकनार्थ एवं यथा स्थान प्रस्थापित करने के आग्रह के साथ 

प्रस्तुत है - 

मनहरण घनाक्षरी

यात्रा हो चारधाम या कुम्भ का स्नान करना, रेल में भी आदमी स्थान को तरस रहे

जोश में है लोग सब, पुन्य भी कमाना चाहे, लोग देखो करते सीट का जतन रहे |

लम्बी लम्बी कतारों में, खड़े इन्तजार करे, टिकट खरीदने की जल्दी सभी कर रहे

रिश्तेदारों की भी भीड़,आती बिदा करने को, समझे भाग्यशाली जो यात्रा पर जा रहे ||

 

टिकट तो मिला पर, सीट का अकाल देख, देखो लोग रेल की छत पर चढ़ रहे

जोश और जूनून का अजीब नजारा देखो जिन्दगी की जोखिम अनदेखी कर रहे |

लिए गोद में जो बच्चा जोश भी भरमार है मृत्यु से ये युवक ज़रा भी न डर रहे

माता में भी जोश भरा, लगाने छलांग वह, हाथ थामे युवक प्रयास में लग रहे ||

 

अजब नजारा देखो, झेलते है परेशानी, नित यहाँ यह तो जनता में उन्माद है

रेलों का है जाल बिछा,भरी दिखे खचाखच, दुनिया में करते भ्रमण में संवाद है |

तीर्थ धाम सैकड़ो है, दर्शनीय स्थान खूब, आते रहे सैलानी ह्रदय में आनंद है

कष्ट झेल रहे सभी, गाँव गाँव से आ रहे,सफर रेल का ये ही जीवन का छंद है ||

दूसरी प्रस्तुति के दुसरे बंद की द्वित्तीय संशोधित पंक्ति -

बच्चा इसके गोद में, युवक लगे साहसी, कुछ लोग और भी खड़े इनके साथ में 

सिखाने के आपके आपेक्ष और अतुल्य प्रयास के लिए हार्दिक आभार आदरनीय 

आदरणीय लक्ष्मण भाईजी..   यथा निवेदित तथा संशोधित  ..

वैसे, तुकान्ता पर कुछ और समय दें..

सादर

आदरणीय सौरभ सा. 

सादर प्रणाम |

मनहरण घनाक्षरी के इतने अच्छे आयोजन ने मन को हर लिया |सभी चयनित आदरणीय  रचनाकारों को हृदयतल से बधाई |सफल आयोजन हेतु आपका कोटि कोटि अभिनन्दन |मेरा हिंदी के इस अति प्रचलित वार्णिक मुक्तक में प्रथम प्रयास था |कुछ चित्र दुरूह था फिर भी आप सभी महानुभवों के मार्गदर्शन में मुझे इस छंद के कई मूलभूत नियम सीखने को मिले |आप सभी का सादर आभार |१८.१०.१४ से २७.१०.१४ तक दीपावली अवकाश पर गाँव गया हुआ था |वहाँ कम्पूटर नहीं होने से मंच पर आप सभी के सत्संग से वंचित रहा |इसी कारण अपनी रचना में समय रहते संशोधन नहीं करा पाया | आशा है आपका स्नेह मुझ पर इसी भांति बना रहेगा और आप मुझे हिंदी छंदों  के बाबत अनुज समझ कर स्नेहिल मार्गदर्शन यथावत प्रदान करते रहेंगे |

सादर 

स्नेहाकांक्षी 

खुरशीद खैराड़ी 

आदरणीय ख़ुर्शीद भाई, मैं बार-बार कहता रहा हूँ, आपकी रचनाधर्मिता और उसकी गहराई सेहम बखूबी वाकिफ़ हैं. विधा कोई हो, पहला प्रयास सदा तुतलाता हुआ होता है.
विश्वास है, आपने इस बात को समझने का प्रयास किया होगा कि आपकी प्रस्तुति में दोष क्या हुआ था. या, कारण क्या रहा था. यह समझना अधिक आवश्यक है.
छन्दोत्सव के आयोजन में आपकी भागेदारी सदा से स्वागतयोग्य है. आपकी उपस्थिति के प्रति हम आश्वस्त भी हैं. आयोजन की गरिमा आप जैसे सदस्यों की उपस्थिति से बढ़ती है.
शुभ-शुभ
सादर

वाह वाह बहुत बढ़िया मनहरण घनाक्षरी छंद पद प्रस्तुत हुए है. नाम के अनुरूप ही वाकई यह छंद मनहरण ही है .... आनंद आ गया इसे पढ़कर.  

भारती के लाल सुनों, ऐसे ही कवित्त गुनों, दुःख जो किसी का तो किसी की चाह कह दे

हारे हुए पथिकों को आसरा लगे पदों में, हर शब्द लक्ष्य की सहज राह कह दे

जो भी पढ़े छंद को वो मन से तो हरषाएं, पद भी सहज वो धाराप्रवाह कह दे

लिखिए कवित्त सदा ऐसे लय ताल में कि आमजन सुन बस वाह वाह कह दे 

अभ्यास के क्रम में आयोजन की रचनाओं से प्रेरित होकर प्रथम प्रयास किया है. 

(आदरणीय सौरभ सर के वाहवा! वाले पद से प्रेरित)

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