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मंथर गति से

थमा नहि पल कोई सुहाना
बीत सदा जाता है।
मंथर गति से घट जीवन का
रीत सदा जाता है।

सींचा एक एक पौधा तब
वन उपवन लहराते।
अनजाने से सन्नाटे ये
चुपके चुपके आते।
बड़ा तिलस्मी मरूथल
पग पग
जीत सदा जाता है

अल सुबहा के स्वपन सजीले
दिन भर धूम मचाते।
ऊषा के स्वर्णिम चंचल रँग
साँझ ढले थक जाते।
श्याम निशा के रँग
से जीवन
भीत सदा जाता है
मंथर गति से घट जीवन का
रीत सदा जाता है।

.
सीमा हरि शर्मा 30.09.2014
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by seemahari sharma on October 1, 2014 at 10:05am
Mahima shree जी ह्रदय से आभार आपका स्नेह बनाए रखें
Comment by seemahari sharma on October 1, 2014 at 10:03am
बहुत बहुत शुक्रिया Vivek Jha जी आपने रचना पर इतना ध्यान दिया। आपने जो ' इक इक'करने का सुझाव दिया उसका स्वागत है परन्तु मेरे ख्याल से इक शब्द उर्दू में प्रयोग किया जाता है। पुन:धन्यवाद आपका
Comment by MAHIMA SHREE on September 30, 2014 at 3:38pm

बहुत सुंदर गीत आपने लिखा है ..हार्दिक बधाई आपको 

Comment by Vivek Jha on September 30, 2014 at 1:48pm

बहुत अच्छी कविता है, बधाई स्वीकार की जाय | "सींचा एक एक पौधा तब" - "एक-एक" में लय भंग हो रहा है उसकी जगह "इक-इक" बेहतर है 

Comment by Shyam Narain Verma on September 30, 2014 at 1:17pm

" सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये आपको बधाइयाँ .................. "

Comment by Pawan Kumar on September 30, 2014 at 12:25pm

"सुन्दर प्रस्तुति, सादर बधाई!"

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