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अरे चाचा !

तुम तो बिलकुल ही बदल गये

मैंने कहा – ‘ तुम्हे याद है बिरजू 

यहाँ मेरे घर के सामने

बड़ा सा मैदान था 

और बीच में एक कुआं 

जहाँ गाँव के लोग

पानी भरने आते थे 

सामने जल से भरा ताल 

और माता भवानी का चबूतरा

चबूतरे के बीच में विशाल बरगद

ताल की बगल में पगडंडी

पगडंडी के दूसरी ओर

घर की लम्बी चार दीवारी

आगे नान्हक चाचा का आफर

उसके एक सिरे पर

खजूर के दो पेड़ 

पेड़ो के पास से गुजरता

धूल भरा गलियारा

गलियारे के किनारे

पिलुआ के हरियाले पेड़ 

दूसरी ओर राधे दादा के खेत 

पिलुआ पर बैठे दो-चार बच्चे

कूदते-फुदकते

एक डाल से दूसरी डाल पर

शोर मचाते लड़ते

ऊसर में ख़त्म होता वह

सर्पाकार गलियारा

उस ठौर जलती थी

गाँव की होली

झांकता था दूर से

लसोढ़े का पेड़  

बरसते मेह में

सुलगती थी उसकी गंध 

आज ये सब कहाँ है ?

पेड़ो को लील लिया

समय की मार ने

गलियारों को अतिक्रमण ने

मैदानों को बढ़ती बस्ती ने  

सभी कुछ तो बदल गया 

तुम भी वही है 

मै भी वही हूँ

गाँव भी वही है

पर न तुम, न मैं

और न गाँव 

कोई भी पहले जैसे नहीं हैं

सब कुछ बदलता है

सब कुछ बदला है

मिट भी जायेगा

एक दिन !

 

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by harivallabh sharma on September 22, 2014 at 8:27pm

समय कितनी गति से चल रहा है सब कुछ तो बदल रहा ..ग्रामीण परिवेश अब वह नहीं रहा..

तुम भी वही है 

मै भी वही हूँ

गाँव भी वही है

पर न तुम, न मैं

और न गाँव 

कोई भी पहले जैसे नहीं हैं

सब कुछ बदलता है

सब कुछ बदला है

मिट भी जायेगा

एक दिन !...बहुत सुन्दर चित्रण किया आपने सादर बधाई.

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 22, 2014 at 5:41pm
गाँव जब छूट जाता है तो बहुत कुछ छूट है , वो नदिया , वो बगिया , वो पीपल की छाँव , सब छूट जाता है और हम शहर में वो सब ढूंढते हैं . शहर की उमस, जेनेटर की गर्मी और शोर ,भीड़- भाड़ , हम उसी के आदि हो जाते हैं , फिर कभी भूले से गाँव पहुँचते हैं तो खुद की जगह गाँव को बदला हुआ बताते हैं .
यह अलग बात है कि गाँव के अतीत से हम फिर भी जुड़े रहते हैं , इसीलिये वह सब सुखद और मधुर लगता है।
बहुत अच्छी , कुछ अलग सी प्रस्तुति हेतु ढेरों बधाइयाँ आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी , सादर .
Comment by Shyam Narain Verma on September 22, 2014 at 12:43pm

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... सादर बधाई ......................

Comment by Chhaya Shukla on September 22, 2014 at 12:09pm

यादों को सींचती 
पुराने दिन तलाशती सुंदर रचना आदरनीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी !

सादर नमन 

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on September 22, 2014 at 12:06pm

वर्तमान गाँव की बदलाओ भरी जिंदगी के दुखद पहलुओं को साकार करती इस रचना पर साधुवाद माननीय डॉ गोपाल नारायन जी.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 22, 2014 at 11:55am

मित्र

आपका स्तवन  i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 22, 2014 at 11:52am

आदरणीय करुण जी

आपका अनन्य आभार i


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 21, 2014 at 11:16pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , गाँव का बहुत सुन्दर चित्र खींचा है आपने , और उजड़ते गाँव की पीड़ा भी साफ़ झलक रही है | बहुत सुन्दर  रचना ! आपको बधाइयाँ |

Comment by Santlal Karun on September 21, 2014 at 7:46pm

आदरणीय डॉ. श्रीवास्तव जी,

आप ने बदलते गाँव और उनके रूखेपन का अत्यंत मार्मिक चित्र इस ताज़ी-टटकी कविता में उकेर कर रख दिया है --

"सभी कुछ तो बदल गया 

तुम भी वही है 

मै भी वही हूँ

गाँव भी वही है

पर न तुम, न मैं

और न गाँव 

कोई भी पहले जैसे नहीं हैं

सब कुछ बदलता है

सब कुछ बदला है

मिट भी जायेगा

एक दिन !"

...हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! 

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