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हिन्दी भाषा पखवारे पर (नवगीत) // --सौरभ

अस्मिता इस देश की हिन्दी हुई
किन्तु कैसे हो सकी
यह जान लो !!
कब कहाँ किसने कहा सम्मान में..
प्रेरणा लो,
उक्तियों की तान लो !

कंठ सक्षम था
सदा व्यवहार में
स्वर कभी गूँगा नहीं था..
भान था.
इच्छितों की चाह में
संदर्भ थे
दर्द में
पारस्परिक सम्मान था

भाव कैसे रूढ़ियों में बोलता ?
शक्त-संवेदन मुखर था,
मान लो !

शब्द गढ़ती
भावनाएँ उग सकीं  
अंकुरण को
भूमि का विश्वास था
फिर, सभी की चाहना
मानक बनी
इंगितों को
जी रहा इतिहास था

ऐतिहासिक मांग थी,
संयोग था..
’भारती’ के भाव का भी
ज्ञान लो !!

साथ संस्कृत-फारसी-अरबी लिये
लोक-भाषा
शब्द व्यापक ले कढ़ी  
था चकित करता हुआ
वह दौर भी
एक भाषा
लोक-जिह्वा पर चढ़ी

हो गया व्यवहार
सीमाहीन जब  
जन्म हिन्दी का हुआ था,
मान लो

देश था परतंत्र,
चुप था बोल से
नागरिक-अधिकार हित
ज्वाला जली
मूकजन हिन्दी लिये जिह्वाग्र पर
’मातरम वन्दे’ कहें,
आँधी चली !

देश को तब जोड़ती हिन्दी रही
ले सको
उस ओज का
अम्लान लो !
************************
--सौरभ
************************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 2, 2014 at 12:28am

आदरणीय सन्तलाल करुणजी,  नवगीत प्रस्तुति पर मिले आपके मुखर अनुमोदन से मेरे प्रयास को सम्मान मिला है.
सादर धन्यवाद आदरणीय


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 2, 2014 at 12:20am

आदरणीय डॉ. गोपालकृष्णभाईसाहब एवं डॉ. विजय शंकरभाईसाहब, आप दोनों के विचारों से मैं भी समृद्ध हुआ. आप विद्वद्जनों के सामने मैं बोलने की इस मुआफ़ी के साथ गुस्ताख़ी कर रहा हूँ कि मेरी इस नवगीत प्रस्तुति पर आप दोनों विद्वानों के बीच हुई अनायास चर्चा कई मायनों में इस प्रस्तुति की पूरक है.

वस्तुतः कोई आम भाषा ही नहीं कोई ज़मीनी परम्परा तक राज्यादेश के द्वारा लोक-प्रसिद्ध नहीं हुआ करती. लेकिन शासन का संरक्षण पा कर पल्लवित-पुष्पित अवश्य होती है. ’पढ़े फ़ारसी, बेचे तेल; देखो यह क़ुदरत का खेल’ जैसी कहावत मुग़ल काल के आखिरी कुछ वर्षों की दशा कहती हुई दीखती है, जब अंग्रेज़ी का वर्चस्व भारतीय समाज पर छाने लगा था.

या, ’दीन-ए-इलाही’ जैसे सरकारी पंथ को मानने वाला इस पंथ के पूरे इतिहास में या आजतक एक ही व्यक्ति हो पाया ! बीरबल ! कहने का तात्पर्य यही है, कि भाषा या पंथ या परम्परायें या व्यापार, शासन से संरक्षण पायें तो उनके बने रहने का वातावरण अवश्य बना रहता है. परन्तु, यदि इनको लोक-जीवन का हार्दिक और आत्मीय समर्थन न मिल पाया तो इनके लुप्त होने में समय नहीं लगता.
फिर, रूस आदि देशों की तुलना भारत देश और इस देश की परिस्थितियों से नहीं की जा सकती. कारण कि, भारत में भाषा अमूमन सभी राज्यों के होने का कारण है, उनकी अस्मिता का आधार है. यह स्थिति रूस जैसे देशों में किसी भाषा को लेकर नहीं है. अतः रशियन मुख्य भाषा है.

भारतीय सामाजिक तथा राजनैतिक वैचारिकों की यह महान भूल थी या नहीं, इस बहस में मैं नहीं पड़ूँगा. न ही यह थ्रेड इसके लिए समीचीन पटल ही है. परन्तु, यह विन्दु अवश्य मन में आता है कि हिन्दी भाषा को संविधान की धारा 343 के अनुभागों के माध्यम से प्रमुख भाषा और अंग्रेज़ी की सहगामी भाषा न मान कर, इसे देश की संपर्क भाषा की तरह स्वीकार किया गया होता, तो आजकी भाषायी परिस्थितियाँ अवश्य भिन्न होतीं. कोई अ-हिन्दी भाषी राज्य हिन्दी भाषा को अपनी स्थानीय भाषा पर किसी आतंक या कमसेकम प्रतिद्व्ंद्वी भाषा की तरह नहीं लेता.

हम हिन्दी भाषी हिन्दी को जिस दिन मात्र भाषा मानना बन्द कर, इसे अपनी अस्मिता का प्रश्न बना देंगे, उसी दिन यह भाषा अपने नये रंग में आजायेगी. परन्तु, उसके पहले हम हिन्दीभाषियों को अपने वैचारिक दोगलेपन से बाहर आना होगा. अंग्रेज़ी जानना एक बात है और अंग्रेज़ी के प्रयोग को अपनी शान समझना या सामाजिक रूप से अपने को उच्च होने का पर्याय मानना निहायत दूसरी बात ही नहीं, घटिया बात है. साथ ही यह भी सही है कि, अंग्रेज़ी ही नहीं किसी भाषा का विरोध इसी कारण बहुत बड़ी सामाजिक विडम्बना है.
खैर..    

आप दोनों सुधीजनों को मेरा सादर अभिवादन और हार्दिक धन्यवाद कि आपको मेरी प्रस्तुत रचना रुचिकर और पठनीय लगी.
सादर

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on September 1, 2014 at 9:44pm

देश था परतंत्र, 
चुप था बोल से 
नागरिक-अधिकार हित 
ज्वाला जली 
मूकजन हिन्दी लिये जिह्वाग्र पर 
’मातरम वन्दे’ कहें, 
आँधी चली !

देश को तब जोड़ती हिन्दी रही 
ले सको 
उस ओज का 
अम्लान लो ! 

लोग कहते दूसरी आजादी है, ये हिंदी हिन्दू का बढ़ा प्रचार है, दूसरे देशों में हिंदी बोलकर अपने भारत का बढ़ा अब मान है. है कोई क्या योजना हिंदी की अब  ? मंच अब से ही सजा लें बेहतर. आ रहे सब हिन्दू के त्योहार हैं. यूं ही कुछ पंक्तियाँ जोड़ने की कोशिश की हैं. आदरणीय सौरभ साहब!

 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 1, 2014 at 6:01pm
आदरणीय सौरभ जी
कुछ रचनाएँ कभी-कभी ही सामने आती है जो स्तब्ध कर देती है i आपके इस नव गीत में मेधा की गंगा है ,ज्ञान की यमुना है और अनुभव की सरस्वती हैं i इनसे मिलकर हिन्दी रूपी तीर्थराज स्थापित हुआ है I हिन्दी भले ही अन्तराष्ट्रीय भाषा नहीं है पर इसके बोलने वाले अब सबसे अधिक हैं i इसने इस मामले में चीन को पछाड़ दिया है डॉ0 जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने अपने भाषा शोध अध्ययन 2005 में हिन्दी वाचको की संख्या एक अरब दो करोड पच्चीस लाख दस हजार तीन सौ बावन घोषित की है जबकि चीनी बोलने वालों की संख्या मात्र नब्बे करोड चार लाख छह हजार छह सौ चौदह बताया है । किन्तु आंकड़ो के खेल यदि मान लिया जाए कि रहस्यमय होते है तो भी उन्हें बिलकुल ही दरकिनार तो नहीं किया जा सकता I हम इस सच्चाई से तो मुख नहीं मोड़ सकते कि हिंदी भाषियों की संख्या विश्व की दो सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है ।
उक्तियो की तान, शक्त-संवेदन,लोक-जिह्वा आदि शब्द प्रयोगों से सजी आपको इस सर्व प्रिय उत्कृष्ट रचना के लिये बधाई देते हुए मै यही कहूँगा-
लौकिक संस्कृत है सुर सरिता , पर अपनी जो कालिंदी है i
वह राम-श्याम के वर्ण सदृश भारत की भाषा हिन्दी है ii
सादर i

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 1, 2014 at 5:04pm

यही हाल है हिंदी का ..हाल ही मैं जहाँ देश भर में सिविल सेवा के सी सेट के अंग्रेजी की अनिवार्यता को लेकर बबाल मचा वही उत्तराखंड में पीसीएस के परीक्षार्थी हिंदी में ही फेल हो गए ..हिंदी बोलते जरूर हैं किन्तु व्याकरण का ज्ञान शून्य है क्यूंकि स्कूल कालेजों में भी व्याकरण पर कौन जोर देता है यहाँ सरकार और खुद हम लोगों पर जिम्मेदारी आ जाती है कि हम अपनी हिंदी को आगे बढायें या आज की पीढी को सिर्फ़ हिन्दलिश के झूलों में ही झूलते देखते रहें| इंटरनेट सेवा होने से ब्लागिंग,व् हिंदी की असंख्य वेबसाईट होने से एक आस जागृत हुई है देख भी रहे हैं कि केवल हिंदी भाषी ही नहीं दूसरी भाषा के लोग भी हिंदी लिख रहे हैं|अपने देश में ही कुछ स्टेट्स ऐसे हैं जो हिदी भाषी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं यहाँ सरकार को कदम उठाने की आवश्यकता है|

आ० सौरभ जी ने इस सार्थक गीत को रचकर आपने अपने विचार रखने का अवसर  दे दिया है|हिंदी पखवाड़े पर इस शानदार गीत के लिए आपको ढेर सारी बधाईयाँ|     

हो गया व्यवहार 
सीमाहीन जब  
जन्म हिन्दी का हुआ था, 
मान लो 

देश था परतंत्र, 
चुप था बोल से 
नागरिक-अधिकार हित 
ज्वाला जली 
मूकजन हिन्दी लिये जिह्वाग्र पर 
’मातरम वन्दे’ कहें, 
आँधी चली !----

बहुत शानदार ओजपूर्ण पंक्तियाँ ...ये आंधी हिंदी की दशा को सुधारने के लिए आगे भी जारी रहनी चाहिए...शुभकामनायें  

Comment by Santlal Karun on September 1, 2014 at 4:59pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,

देश की अभिव्यक्ति का गौरव, उसके उद्भव का दर्द-सन्दर्भ, उसकी भूमि का विश्वास-संजीवन इतिहास, लोक-जिह्वा पर उसकी प्रतिष्ठापना तथा पूरे देश को जोड़ती हुई लोकहित में परतंत्र भारत की ज्वाला बनी हिन्दी की अस्मिता का यह नूतन गान बहुत सुन्दर बन पड़ा है; सहृदय साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! 

Comment by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 1, 2014 at 3:11pm

आदरणीय डा0 साहब। सादर नमन।  आपके विचार पढ़े । थोड़ा भिन्‍न है मेरा मत। सरकार से क्‍यों अपेक्षा नहीं करें। सरकार भी हम चुनते हैं। वे हमारे प्रतिनिधि हैं। हमारी तरफ से बोलते हैं। व्‍यवस्‍था कुछ भी है, मैं उसका विरोध नहीं कर रहा। आज अड़सठ साल में भी हम हिंदी को वो सम्‍मान नहीं दिला पाये। आज कम्‍प्‍यूटर/नेट क्रांति से जो भी कर रहे हैं, जो हिंदी में कर रहे हैं, एक इतिहास बनेगा। हम ही कर रहे हैं, पर कितने साल......और कितने साल........। अन्‍यथा नहीं लेंगे। विदेशी भाषा पर कुछ तो अंकुश लगाना होगा वह हम नहीं हमारे प्रतिनिधि/प्रतिनिधियों से ही अपेक्षित है। प्‍यार की भाषा व्‍यवहार में काम आ सकती है, नियम विनियम कानून लाकर ही हम लगाम कस सकते हैं। रूस का उदाहरण दूँ, वहाँ अंग्रेजी का कोई विज्ञापन, दुकानों का नाम पढ़ने देखने को नहीं मिलेगा, यहाँ तक कि वे अंग्रेजी बोलने वालों से बात नहीं करते । वे उनका अपमान नहीं करते किंतु पर अपनी भाषा से बेहद प्‍यार करते हैं। वहाँ व्‍यवहार में केवल रशियन सिर्फ रशियन। क्‍या ऐसा हमारे यहाँ नहीं हो सकता। हम और हमारा वर्तमान वातावरण सिर्फ कानून की भाषा ही समझता है। कुछ तथाकथित संभ्रात लोग तो हिंदी बोलने वालाें को हेय दृष्टि से देखते हैं। सारे साक्षात्‍कार अंग्रेजी में बोल कर प्रतियोगी का उत्‍साह ठंडा कर देते हैं। ऐसा क्‍यों हो रहा है। उन्‍हें व्‍यवहार कौन सिखायेगा जो कानून तक को ताक में रखने की ताक़त रखते हों।

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 1, 2014 at 2:42pm

"एक भाषा
लोक-जिह्वा पर चढ़ी "

बहुत सार्थक , सुन्दर .
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आपसे सहमत होते हुए कभी कभी ये विचार मुझे भी आता है कि भाषा का विकास तो हमारा ही काम है किसी और का नहीं .
मैं आजतक यह समझ नहीं पाया कि हम सरकार से क्या क्या मांगते हैं , क्या क्या नहीं मांगते हैं . इतिहास बताता है कि शासनादेशों से भाषाएँ नहीं चलतीं , किसी देश में नहीं चलीं . अगर हम से यह कहा जाए कि अभी तक हिंदी का जो विकास हुआ है वह सरकारी कृपा से ही हुआ है तो हम मान लेंगें, क्या ? दुनिया में अनेक उदाहरण मिल जायेंगें जहां राजदरबार की भाषाएँ राज-पाठ के साथ विलुप्त हो गयीं या उससे भी पहले विस्थापित कर दी गयी . भाषा का एक नाम जुबान है , किस से जुबान मांग रहें हैं हम और क्यों ? फिर एक इस विचार को भी पनपने दीजिये कि सरकार आप बनातें हैं, सरकार को आपको बनाने का काम मत सौपिये . भाषा , जुबान , बोली व्यवहार की चीज है व्यवहार से बढ़ाइए , प्रोत्साहन से आगे बढ़ाइए .
हिंदी भाषा पखवारे पर एक विनम्र निवेदन , सादर .

Comment by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 1, 2014 at 9:36am

बहुत ऊँचाइयों की बात कहता नवगीत। बधाई हो पांडेय जी। किंतु एक दर्द सा है आपके गीत को आगे बढ़ाता मेरा जवाब- अगर सत्‍य है तो आशीर्वाद चाहूँगा।  

'कुछ क‍हीं है

बेरुखी समग्र की

स्‍वाधीनता के जोश में

हवा हुई

मौन दर मौन

सहते ही गये

नासूर की न कोई भी

दवा हुई

आज भी व्‍यवहार

शर्मनाक है

किस को दें सज़ा

यह ठान लो

 

(सरकार ने सोशल मीडिया पर हिंदी के ज्‍यादा इस्‍तेमाल का सर्कुलर जारी किया था। इसका विरोध हुआ और आदेश वापिस ले लिया गया। समाचार दैनिक भास्‍कर 1 सितम्‍बर 2014) 

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