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अगर तुम टूटने के दर्द को महसूस कर जाते (ग़ज़ल 'राज'

१२२२    १२२२    १२२२  १२२२

अगर तुम टूटने के दर्द को महसूस कर जाते

तो क्या खुद एक पल में टूटकर इतना बिखर जाते

 

रिदाएँ गर्द की जब तब हटाते आइनों से तुम

दिलों के फासले मिटते कई रिश्ते सँवर जाते

 

झुलसते जिस्म फसलों के उमड़ती प्यास धरती की

चिढ़ाते बेवफ़ा बादल इधर जाते उधर जाते

 

पहेली सी बने फिरते बड़े मदमस्त ये बादल

कहीं ख़ाली गरजते उफ़ कहीं हद से गुजर जाते

 

तुम्हारे झूठ के छाले लगे रिसने सफ़र लम्बा

सदाक़त की यहाँ है छाँव पल भर को ठहर जाते 

 

मुहब्बत के दरीचों से जरा सी धूप मिल जाती    

छतों की झिरकियाँ पटती मकाँ उनके सुधर जाते

 

जिया ख़ुर्शीद की उनकी तरफ भी मुस्कुरा देती  

उजाले उन अभागों के चिरागों में उतर जाते

 

ये कैसे फैसले मालिक कँही सूखा कँही जल-थल

न  चौखट पे तेरी आते  बता तू ही किधर जाते 

 

सदाक़त= सच्चाई

जिया---रोशनी/किरण /चमक  

ख़ुर्शीद—सूर्य

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

 

 

 

 

 

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Comment

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Comment by Santlal Karun on August 20, 2014 at 6:13pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी,

सभी शेर बेहतरीन, बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल, हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --

"रिदाएँ गर्द की जब तब हटाते आइनों से तुम

दिलों के फासले मिटते कई रिश्ते सँवर जाते"

Comment by Shyam Narain Verma on August 20, 2014 at 5:57pm
" सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई ...... "

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Comment by rajesh kumari on August 20, 2014 at 4:01pm

आ० डॉ. गोपाल नारायण जी,आपको सभी अशआर पसंद आये मेरा लिखना सफल हुआ आपकी इस जर्रानवाजी का तहे दिल से शुक्रिया.    

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 20, 2014 at 2:11pm

आदरणीय

जब सभी मोती  सच्चे हो तो किस किसकी तारीफ करें !

रिदाएँ गर्द की जब तब हटाते आइनों से तुम

दिलों के फासले मिटते कई रिश्ते सँवर जाते

 

तुम्हारे झूठ के छाले लगे रिसने सफ़र लम्बा

सदाक़त की यहाँ है छाँव पल भर को ठहर जाते 

 

जिया ख़ुर्शीद की उनकी तरफ भी मुस्कुरा देती  

उजाले उन अभागों के चिरागों में उतर जाते


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Comment by rajesh kumari on August 20, 2014 at 10:53am

आ० नरेंद्र सिंह जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया | 


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Comment by rajesh kumari on August 20, 2014 at 10:50am

आ० गिरिराज जी,आपको ग़ज़ल के अशआर पसंद आये मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ |


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Comment by rajesh kumari on August 20, 2014 at 10:35am

प्रिय वेदिका जी,तहे दिल से आभार | 


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Comment by rajesh kumari on August 20, 2014 at 10:35am

आ० डॉ.विजय शंकर जी, आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया आपका.  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 10:05am

आदरणीय राजेश जी , लाजवाब ग़ज़ल कही है , बधाइयाँ |

पहेली सी बने फिरते बड़े मदमस्त ये बादल

कहीं ख़ाली गरजते उफ़ कहीं हद से गुजर जाते

 

तुम्हारे झूठ के छाले लगे रिसने सफ़र लम्बा

सदाक़त की यहाँ है छाँव पल भर को ठहर जाते 

ये कैसे फैसले मालिक कँही सूखा कँही जल-थल

न  चौखट पे तेरी आते  बता तू ही किधर जाते  ----------- ढेरों बधाइयाँ इन अश आर के लिए |

Comment by वेदिका on August 20, 2014 at 1:52am
सुंदर गजल पर हार्दिक बधाई!

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