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"ये क्या मम्मी , फिर आपने इस ठेले वाले से सब्ज़ी खरीद ली । कितनी बार कहा है की सामने वाले शॉपिंग माल से ले लिया करो । सब्ज़ियाँ ताज़ी भी मिलती हैं और अच्छी भी । क्या मिलता है आपको इसके पास"।

"बेटा , इसकी सब्ज़ी में अपनापन है और उसमे जो स्वाद मिलता है न वो और कहीं नहीं मिलता"।

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on July 25, 2014 at 10:48am

आभार सुभ्रांशुजी ..

Comment by Shubhranshu Pandey on July 25, 2014 at 9:12am

आदरणीय विनय जी, 

आज के इस व्यावसायिक दौर में जहां सामान के साथ साथ सम्बन्ध भी युज एण्ड थ्रो हो गये हैं वहां इस तरह की बातें खत्म होती जा रही है...सुन्दर कथा

सादर.

Comment by विनय कुमार on July 24, 2014 at 8:54pm

आभार गिरिराज भण्डारीजी..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 24, 2014 at 3:04pm

नये बच्चे ये बात नही समख पाते , समझाना भी ज़रूरी है । सुन्दर लघुकथा , आपको बधाइयाँ ॥

Comment by विनय कुमार on July 24, 2014 at 1:58pm

आभार जितेंद्रजी , सौरभजी एंड राजेश कुमारीजी..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 24, 2014 at 10:24am

जिस चीज में अपना पन  होता है वो हमे भावनात्मक रूप से भी बांधे रहता है और इसे वही समझ सकता है जो इससे जुड़ा हो,स्वाद कथा का मर्म बहुत दिल के करीब लगा ,लघु कथा  अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब है बहुत- बहुत बधाई| 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 24, 2014 at 12:01am

सामाजिक व्यवहार को आग्रही बाज़ारवाद जिस तह से निशाना बनाता हुआ निगलता जा रहा है उसकी ज़द में ये सब्ज़ीवाले टाइप के छोटे व्यापारी अनायास आ गये हैं. आजकी एक भावनात्मक ही नहीं प्रमुख सामाजिक समस्या को इस लघुकथा के माध्यम से शब्द मिले हैं.

हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 23, 2014 at 11:54pm

बहुत सुंदर कथा, बस!..यह अपनेपन वाला  स्वाद  बहुत कम ही समझते है. बधाई आदरणीय विनय जी

Comment by विनय कुमार on July 23, 2014 at 7:06pm

आभार डॉ विजय शंकरजी , डॉ गोपाल नारायणजी एवम संतलाल जी ..

Comment by Santlal Karun on July 23, 2014 at 4:15pm

आदरणीय विनय कुमार सिंह जी,

अपनत्व को रूपायित करती लघु कथा, संदेशपरक, साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

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