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कैसी शुष्कता है?

जो धूप में

बदन झुलसा रही..

भीतर इतनी आग

विरह की जो

केवल धुआँ

और धुआँ देती है

राख तक नसीब नहीं

जिसे रख दूँ संजो कर

तेरी हथेली पर

जब मिलन की बेला हो

और कहूँ कि....

यह पाया मैंने

तुझ बिन...!

     जितेन्द्र ' गीत '

( मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 25, 2014 at 12:18pm

आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय गिरिराज जी, स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा

सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 24, 2014 at 10:58pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , विरह के भावों को बहुत कम शब्दों मे बहुत सुन्दरता से बयान किया है , बहुत बहुत बधाइयाँ !!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 24, 2014 at 10:31pm

आपकी उत्साहवर्धक सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार, आदरणीया महिमा जी

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 24, 2014 at 10:30pm

आपका हार्दिक आभार आदरणीया सविता जी

सादर!

Comment by MAHIMA SHREE on April 24, 2014 at 9:21pm

वाह बहुत खूब ... हार्दिक बधाई आपको ..

Comment by savitamishra on April 24, 2014 at 1:15pm

बहुत ही सुन्दर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 23, 2014 at 9:11pm

रचना पर आपकी उत्साहवर्धक सराहना हेतु ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय नीरज जी, स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 23, 2014 at 9:09pm

आपका हार्दिक आभार आदरणीय अरुण अनंत जी, स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 23, 2014 at 11:29am

जीतेन्द्र भाई बहुत ही सुन्दर भाव सुन्दर रचना बधाई आदरणीय

Comment by Neeraj Neer on April 23, 2014 at 8:45am

वाह आदरणीय जीतेंद्र जी .. बहुत बेहतरीन लिखा है , बहुत कम शब्दों में भावों का गहरा सागर समेत लिया है.. बहुत खूब... बात सीधे दिल तक पहुचती है.... बधाई आपको.. 

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