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नयनों की इस झील का, कितना निर्मल नीर।

बूँद बूँद कहती रही, देखो तल की पीर॥

वो आती हैं जब यहाँ, होता है आभास!
तपते पग को ज्यों मिले,पथ पर कोमल घास!!

मन शुक फिर बनने लगा,चखने चला रसाल !!
कितना मोहक रूप है,कितने सुन्दर गाल!!

केश कहूँ या तरु सघन,होता है यह भ्राम!!
इन केशों की छाँव में,कर लूँ मैं विश्राम!!

प्रेममयी इस झील का,अविरल मंद प्रवाह!
इसकी परिधि अमाप है,और नहीं है थाह!!

रंगों की वर्षा हुई,अनुपम यह अभिसार!!
फाग गा रही प्रकृति भी,करके नव श्रृंगार!!

ध्यान मग्न रहता सदा,प्रतिदिन आठो याम!
वेणु बजाते आइये,मेरे गृह भी श्याम!

कण कण में है वो बसे,इधर उधर चहुँ ओर!
नटखट कान्हा,कृष्ण या,कह लो माखनचोर!!
********************************************

मौलिक/अप्रकाशित

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

Views: 688

Comment

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Comment by ram shiromani pathak on April 21, 2014 at 9:50am

अमूल्य सुझाव व् अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार आदरणीया प्राची जी..........   सादर(पोस्ट पर विलम्ब  से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ )  

Comment by ram shiromani pathak on April 21, 2014 at 9:47am

हार्दिक आभार आदरणीय भाई आशीष जी..........   सादर  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 26, 2014 at 9:43pm

सुन्दर दोहे हुए हैं राम शिरोमणि जी 

कथ्य की तार्किकता और संप्रेषणीयता पर आ० सौरभ जी नें बहुत सम्यक बाते कही हैं.. ध्यान अवश्य ही दें 

शुभकामनाएं 

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 23, 2014 at 4:21pm

सुन्दर प्रेमपूर्ण दोहे हैं भाई
बधाई |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 23, 2014 at 12:09pm

होता है आभास  और होता यूँ आभास .. इन दोनों में काल एक ही है, और, अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति भी एक ही है. अतः भाव संप्रेषण में विशेष अंतर होता मुझे प्रतीत नहीं हुआ, भाई बृजेश जी.  

पुनः कोशिश कर परखता हूँ, यदि ऐसा कोई अंतर है.

Comment by बृजेश नीरज on March 23, 2014 at 10:04am

बहुत स्वादिष्ट खिचड़ी तैयार की है आपने! आपको बहुत-बहुत बधाई!

दूसरे दोहे की दूसरी पंक्ति तुलनात्मक है. इसलिए पहली पंक्ति के 'होता है आभास' की जगह 'होता यूँ आभास' या ऐसा ही कुछ होना चाहिए. यह मेरा विचार है. आपका सहमत होना आवश्यक नहीं है.

यूँ तो सारे दोहे अच्छे हैं लेकिन यह दोहा मुझे सबसे अच्छा लगा.

//कण कण में है वो बसे,इधर उधर चहुँ ओर!
नटखट कान्हा,कृष्ण या,कह लो माखनचोर!!// ........

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 22, 2014 at 9:05am

बहुत सुंदर दोहावली, बधाई स्वीकारें आदरणीय राम जी

रंगों की वर्षा हुई,अनुपम यह अभिसार!!
फाग गा रही प्रकृति भी,करके नव श्रृंगार!!........बहुत सुंदर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 21, 2014 at 10:46pm

शिरोमणि भार्इ जी, बहुत ही मृदु, कोमल और सुन्दर भावों से पूरित दोहो के लिए बधार्इ स्वीकारें। शेष सौरभ सर जी के कथनो पर भी ध्यान दीजिए। सादर,

Comment by कल्पना रामानी on March 21, 2014 at 8:43pm

बहुत सुंदर दोहे आदरणीय राम शिरोमणि जी, मन से बधाई आपको

Comment by Sarita Bhatia on March 21, 2014 at 8:36pm

आदरणीय सुन्दर दोहावली ,बाकी सब सौरभ सर ने कह दिया 

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