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हक़ीक़त का हमेशा सामना करने से डरते हैं (१२४ )

++ग़ज़ल++( 1222 1222 1222 1222 )
हक़ीक़त का हमेशा सामना करने से डरते हैं
मुहब्बत की वो पहले इब्तिदा करने से डरते हैं
मुहब्बत की उन्हें हासिल नहीं होती कभी मंज़िल
जहाँ में जो भी इज़हार-ए-वफ़ा करने से डरते हैं
न उन की कोई सुनता है न अपनी बात कह पाते
जो अक्सर लोग अर्ज़-ए-मुद्दआ करने से डरते हैं
कोई भी इल्म हो काबू में उनके आ नहीं सकता
बशर जो ज़ीस्त में कोई ख़ता करने से डरते हैं
वबा का ज़ुल्म है जारी ख़ुदा भी हो गया बहरा
हुए हालात ऐसे हम दुआ करने से डरते हैं
बने हमराह ऐसे ग़म कि आदत हो गई इनकी
ग़मों को ज़िंदगी से हम जुदा करने से डरते हैं
हक़ों की बात करना तो हमें लगता बड़ा आसाँ
मगर हम फ़र्ज़ को अक्सर अदा करने से डरते हैं
पिलाकर अपनी आँखों से किया मख़्मूर है जब से
तभी से आज तक हम हर नशा करने से डरते हैं
कभी आँखें दिखाकर तो कभी लूटा मुहब्बत से
'तुरंत' अपनों से हम फिर भी दग़ा करने से डरते हैं
**
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on October 2, 2020 at 7:15pm

भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'  जी , उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2020 at 6:54pm

आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन । उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

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