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“तुम चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें कल ही उस नर्क से दूर ले जाऊँगा।”

आज से कई दिन पहले। “ये आदमी नहीं जानवर है।” पाखी ने अपने पिता से एक बार फिर कहा। “मुझसे रोज शराब पी के मारपीट करता है। वो भी बिना किसी बात के। बस आप मुझे यहाँ से ले जाइए।”

“शादी के बाद ससुराल ही लड़की का असली घर होता है बेटी। थोड़ा सहन करो। समय सब ठीक कर देगा।” और पिता ने एक बार फिर वही जवाब दिया।

“माँ, तुम तो मुझे समझो। या तुम भी पिता जी की तरह?” पर माँ भी समझने से ज़्यादा समझाने पर ज़ोर देती। “वो जैसा भी है अब तुम्हारा पति है बेटी और पति को हमारे यहाँ परमेश्वर माना जाता है।” “यही परमेश्वर तुम्हारी बेटी को एक दिन परलोक पहुँचाएगा। देख लेना।” और वह निराश हो कर फ़ोन रख देती।

“क्या तुम भी माँ और पिता जी की तरह मेरा दुःख नहीं समझोगे? अगर तुम मुझे ले नहीं जा सकते तो कम से कम तलाक़ ही दिलवा दो।” बड़ी उम्मीद से उसने अपने भाई को फ़ोन किया। “तलाक़? तुम पागल तो नहीं हो गयी हो? ख़ानदान की नाक कटवाओगी क्या? तुम वहीं रुको, मैं छुट्टी मिलते ही उधर आता हूँ।” और वह छुट्टी लेता ही रह गया।

हर जगह से निराश हो कर पाखी ने उसे फ़ोन किया जिससे वह बेहद प्यार करती थी। “क़ाश मैंने तुम्हारी बात मान ली होती। अगर मैंने उस दिन हिम्मत की होती तो आज मेरी ज़िन्दगी नर्क न होती।” वो आँसुओं को रोकने की हर सम्भव कोशिश कर रही थी। “मेरा तुमसे यह कहने का हक़ तो नहीं है मगर फिर भी, अगर तुम्हारे दिल में मेरे लिए ज़रा सी भी जगह बची हो तो प्लीज़ मुझे यहाँ से ले जाओ।”

शादी के इतने सालों बाद अचानक उससे बात कर कबीर ख़ुश भी था और बहुत दुःखी भी। “तुम चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें कल ही उस नर्क से दूर ले जाऊँगा।” उसने कहना तो यही चाहा था पर कहा कुछ और।

“मैं तुम्हें वहाँ से ले तो जा सकता हूँ पर सोचो तुम्हारे घर वालों पर क्या बीतेगी? जिस समाज के डर से उन्होंने हम दोनों की शादी नहीं होने दी उस इज़्ज़त का क्या होगा?” वह ख़ुद को क़ाबू में रखने की कोशिश कर रहा था। “तुम शादीशुदा हो। तुम पर अब दोहरी ज़िम्मेदारी है। अगर तुम मुझे चाहती हो तो अपने पति का ख़याल रखो और उन्हें प्यार दो। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।”

पाखी की आँखों से दो आँसू ढलक गए। “कोशिश करती हूँ पर अगर मुझे कुछ हो जाए तो मुझे माफ़ कर देना।” और उसने फ़ोन काट दिया।

आज सुबह ही पाखी की लाश उसके मायके लायी गयी थी। फाँसी के फन्दे पर झूल कर उसने ख़ुद को मुक्त कर लिया था। यह ख़बर जैसे ही कबीर को मिली वह भागता हुआ पाखी की चिता के पास पहुँचा और उसमें कूद गया।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 22, 2018 at 11:28am

वाह आदरणीय क्या ही शानदार लघु कथा लिखी है...ये बहुत ही विकराल समस्या है स्पेशली हिन्दू धर्म में जहाँ एक बार शादी के बाद उसे तोडना पाप की तरह देखा जाता जाता है..जीवन में कई गलत निर्णय हो जाते हैं उनमे सुधार किया जाना चाहिए...लेकिन माफ़ी के साथ कहना चाहता हूँ आखरी पंक्ति खटक रही है मुझे...

Comment by Sushil Sarna on June 21, 2018 at 1:20pm

आदरणीय महेन्द्र जी एक सामाजिक विषय पर मार्मिक लघु कथा। इस मार्मिक और संदेशप्रद प्रस्तुति के लिए हार्दिकबधाई।

Comment by babitagupta on June 21, 2018 at 12:20pm

विवाहोपरांत प्रताड़ित लडकियों की मायके वालो के उसके प्रति नजरिये को हालाते वयां करती बेहतरीन लघुकथा,हार्दिक बधाई आदरणीय सर जी .

Comment by Neelam Upadhyaya on June 21, 2018 at 11:29am

आदरणीय महेंद्र  कुमार जी, नमस्कार।  बहुत ही अच्छी और अत्यंत हृदयस्पर्शी लघुकथा  ।  प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।   

Comment by Shyam Narain Verma on June 21, 2018 at 11:06am
 प्रभापूर्ण सुंदर लघु कथा के  लिए बधाई 
Comment by Samar kabeer on June 20, 2018 at 10:21pm

जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब, आपकी लघुकथाएँ हमेशा मुझे पसन्द आती हैं,ये लघुकथा भी उसी श्रेणी की है, बहुत ख़ूब, इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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