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जमीं में ही माँ जिसको देती दिखाई-गजल

122 122 122 122

वफ़ा की क्यों उम्मीद मैनें लगाई
लिखी मेरी किस्मत में थी बेवफाई

जमीं पर मिटे वो जो चाहे जमीं को
जमीं में ही माँ जिसको देती दिखाई

दिखाई नहीं वार देता जुबाँ का
सलीके से उसने अदावत निभाई

अटकता नहीं है कोई काम उसका
रही मन में जिसके सभी की भलाई

जो हारे वही जीत जाता हो जिसमें
बता कौन-सी ऐसी होती लड़ाई

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by नाथ सोनांचली on March 26, 2018 at 9:48am

आद0 सतविंदर भाई जी सादर अभिवादन।ग़ज़ल का बढिया प्रयास पर अत्यधिक मात्रा पतन से कहीं कहीं लय प्रभावित है। देखियेगा। इस प्रस्तुति पर बधाई आपको

Comment by Samar kabeer on March 25, 2018 at 9:21pm

जनाब सतविन्द्र कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

शिल्प पर और अभ्यास की ज़रूरत है ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 25, 2018 at 1:30pm

आ. भाई सतविंद्र जी, अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई ।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on March 25, 2018 at 12:33pm

बहुत खूब, अच्छे अशआर हुए हैं आदरणीय 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 25, 2018 at 9:36am

अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर

Comment by Shyam Narain Verma on March 23, 2018 at 5:54pm
वाह बेहतरीन ग़ज़ल .. बहुत बधाई..

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"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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