For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

पुआल बनती ज़िन्दगी(कहानी )

पुआल बनती ज़िन्दगी

 

जब मैं गाँव से निकला तो वह पुआल जला रही थी | ठीक उसी तरह जिस तरह वह पहले दिन जला रही थी,जब मैंने उसे इस बार,पहली बार देखा था | ना तो मैं उससे तब मिला था ना आज जाते हुए | पर मैं संतुष्ट था |मेरी अभिलाषा काफ़ी हद तक तृप्त थी |मेरे पास एक उद्देश्य था और एक जीवित कहानी थी |

 पहली बार जब मैं स्टेशन के लिए निकला तभी पत्नी ने फोन करके कहा की गाड़ी का समय आगे बढ़ गया है और जैसे ही मैं गाँव में लौटा मैंने खुशी मैं शोर मचाया और वह भी चिड़ियों की तरह चहक उठी |

पिछले 1 साल में मैं दूसरी बार ससुराल आया आया हूँ | दोनों ही बार मैंने उसे उसके द्वार पर खड़ा पाया था | दोनों ही बार मैंने उसे चुपचाप मेरी तरफ देखता पाया था |पहली बार जब मैंने उसे देखा था तो उसका भरा-पूरा शरीर और चटकदार गेहूँआ वर्ण धान की नई कटी फसल की आभा देता था |

कुछ समय पूर्व ही वह अपनी भूमि(ससुराल ) से कट कर या यूँ कहें अचानक आए तूफान से उखड़कर अपने माईके आ गई थी |

यूँ तो पहली बार से ही मैं उसके प्रति एक अजीब सा चुम्बकीय प्रभाव महसूस कर रहा था |पर तब हमारे बीच का अंतर ना वो पार कर सकी और ना मैं |

बस यदा-कदा जब दृष्टि-मिलन हुआ तो ऐसा लगा कि वो कुछ कहना चाहती है ,पर उस धधकती गर्मी में भी ना तो उसका मौन पिघला और ना मैं अपनी संकोच की चौखट लाँघ पाया |

पहली बार से ही मेरा मन उससे बतियाने को छटपटा रहा था |शायद एक जैसे दुख से गुजरने का अनुभव चुम्बक बन गया था पर हम दोनों ही आसपास के लोहे से चिपके पड़े थे और सही  समय की प्रतीक्षा थी |

इस बार जब ससुराल पहुँचा तो द्वार पर ही अलाव जल रहा था |ठंड हांड कंपा रही थी |पत्नी, मैं और लोगों के साथ आग सेंकने लगे |वह अपने दरवाजे पर गुमसुम सी दिखी |

उसे देखकर पत्नी ने यहीं से आवाज़ लगाई –“माधवी उहाँ का करत हई,आव इहाँ |”

थोड़ी देर में वह इधर आ गई तो पत्नी ने पूछा- कइसन हई |

“ठीक दीदी,तू बतावा |”

“हम त ठीक हईं पर तू त इकदम झउस गईली |ले बहिनि के ले ---“ पत्नी ने बिटिया को मेरी गोद से लेकर उसकी तरफ बढ़ा दिया |

इस बीच उससे मेरी दृष्टी मिली पर |पर ना उसने अभिवादन की कोशिश की और ना मैंने उसकी इस हिमाकत पर कोई शिकायत |मुझे तो बस जलता हुआ अलाव दिख रहा था और सामने खेत में रखा हुआ पुआल का पुराना ढेर जो समय के साथ काला पड़ने लगा था |

उस रोज़ पूरे दिन सूर्यदेव के दर्शन नहीं हुए |पूरे दिने कौड़ा सुलगता रहा |कभी मैं उठकर घर के भीतर चला जाता तो कभी आकर फिर से शरीर गर्म करने लगता |मैं बुझती हुई आग में आसपास रखी लकड़ियाँ,पत्तियाँ उठाकर डाल देता और आग सुलग उठती |इस बीच मेरी दृष्टी उसके दुआर पर टिकी रहती और यदा-कदा जब वो दिख जाती तो ऐसा लगता कि भीतर की  आँच बढ़ गई हो और मैं कौड़े पर रखी लकड़ी की तरह जल रहा हूँ |

पाँच बजते- बजते पूरा गाँव कोहरे की स्लेटी चादर से ढक गया था |मैं सालों के साथ बैठा आग ताप रहा था |पर मेरी दशा पूरे दिन आग जलने से बन चुके अंगार जैसी थी |मैं वहीं बैठा था पर वहीं नहीं था |तभी मुझे माधवी के दुआर पर आग की तेज़ लपटे उठती दिखी और उसमें माधवी उसकी बहन और गाँव की अन्य लड़कियों का धुँधला चित्र दिखाई दिया |

वे लोग पुआल जला रही थीं |आग के चारों और घूम-घूम कर आग सेंक रही थीं |कभी उनकी पीठ आग की तरफ होती तो कभी उनका चेहरा |उनकी यह हरकत मेरे लिए नई थी |शहर में हीटर और ब्लोअर के सामने कोई ऐसे घूर्णन या परिक्रमा नहीं करता |वहाँ तो हीटर को बस सामने की तरफ जरूरत के मुताबिक सरका दिया जाता है या हीट को कंट्रोल करने के लिए स्विच के कान घुमा देते हैं |

पुआल रखने पर पहले धुएँ का गुब्बार उठता फिर आग भभकती और फिर अँधेरा छा जाता |मुझे ऐसा लगा कि किसी पर्दे पर बाइस्कोप चल रहा है जिसमें बीच-बीच की रील खाली है |उस बाइस्कोप के साथ बजने वाला संगीत बहुत ही धीमा और बहुत ही अस्पष्ट था |पर मेरे भीतर का दर्शक लालायित था उस पूरी फिल्म को जानने,देखने और उसे नए कलेवर में पेश करने के लिए |

अगले दिन मैं,पत्नी,चचिया-साली दुआर पर बैठे हाथ सेंक रहे थे |दिन के नौ बज चुके थे पर कुहाँसा जस का तस |उसे उसके दुआर पर टहलता देख पत्नी ने पुकार कर कहा –“माधवी उहाँ पाला में अकेले का टहरत हई,आव इहाँ,केसे लजात हई,जीजा से का----“

धीमे-धीमे वो ऐसे आई जैसे कोई बिल्ली सोए हुए कुत्तों से बचने के लिए दबे पाँव आती हो |

वो चुपचाप आकर अलाव के एक तरफ बैठ गई |तभी आग कम होने पर पत्नी ने पास पड़ी ओसियाई पत्तियाँ रख दी,धुआँ उठा जो हवा से मेरी तरफ मुड़ गया |धुएँ से बचने के लिए मैंने अपनी कुर्सी माधवी की तरफ खिसका दी |

“चाची गईनी स्कूले ?” पत्नी ने पूछा

“हँ |”

“और तोर मम्मी-पापा |”

“उहो चल गइनअ काम पे |”

“चाची ठीक से रहेनि ---हमार मतलब कि तो से टेढ़-सोझ त ना बतियावे नी |”

वो चुपचाप गर्दन गड़ाए बैठी रही और चचिया-साली ने जवाब दिया-का बताई रे दीदी,चाची ना हईं डंकुनी हईं,जब देखा तब दीदी के पाछे लगल रहेनी |

“मम्मी-पापा कुछ ना कहेंनअ ?”पत्नी ने पूछा

“थेथर के मुँहे के लगि दीदी |” इस बार सजल आँखों से माधवी ने कहा

“उनके लाज ना लगेले,सोचे के चाही बेचारी क भगवान ना बिगड़ले होतं त काहे इहाँ रहत ,और जब चूल्हा-चौका सब अलग ह |त उनके त कौनों मतलब ना रखे के चाही,जाए दे बहिनी,सब्र कर ,भगवान चहिअं त सब ठीक हो जाई ,कीचड़ हईं पत्थर फैंकले कउनो लाभ ना |”ऐसा कहते हुए पत्नी का चेहरा वेदना,गुस्से से भरा हुआ था |

“जीजाजी तनि उ लकड़िया ऊपर चढ़ा दीं |” मेरी तरफ की बुझती हुई लकड़ियों की तरफ ईशारा करते हुए माधवी ने हल्की आवाज़ में कहा

ये उसका मेरे प्रति पहला सम्बोधन था |

मैंने देखा कि आग पर रखी हल्की सूखी टहनियों ने आग पकड़ना शुरु कर दिया है और उनके पिछले शिरों से सनसनाती हुई भाँप निकल रही थी |जमी बर्फ़ आज पहली बूंद के रूप में टपकी थी |और एक चातक की तरह उस पहली चिर-प्रतिक्षित बूंद को पीकर में गदगद था |

उसी दिन ससुराल के दलान मैं बैठी हुई वह चुपचाप मुझको देखती रही| मैंने महसूस किया की वह कुछ कहना चाहती है पर ठंड ने उसके शब्दों को जमा रखा था | इस बीच कई बार हमारी नजरों का आमना-सामना हुआ |वहाँ बैठे सभी लोगों से हम बतियाते रहे पर एक दूसरे से---

फिर जब मैं नहा कर बाहर निकला तो वह अपने दुआरे पर पुआल जला रही थी | मुझे देखकर वह बोली-जीजा आईं  हाथ ताप लीं |

पहले मैंने उसके निमंत्रण को अनसुना किया | फिर एक बार दोबारा नजरों का सामना होने पर उसके निमन्त्रण को अस्वीकार ना कर सका |

लपटों से कुछ दूर खड़ा होकर मैं आग तापने लगा |वह दूसरी तरफ खड़ी थी |आग कम होने पर वह पास पड़े ढेर से फिर पुआल उठाकर डाल देती और लपट फिर बढ़ जाती |इस बीच कई बार हमारी नजरों का आमना-सामना हुआ और फिर दोनों ही झिझक कर नजर घुमा लेते |

एक बार फिर जब वह पुआल उठाने के लिए बढ़ी तो मैंने गला साफ़ करते हुए कहा –“ऐसे तो यह बहुत जल्दी खत्म हो जाएगा |”

“हो जाए देंई| जितना जल्दी खतम होई ओतना जल्दी शांति हो जाई |”उसने बहुत ही बेमन से कहा |

मैंने देखा उसकी आँखों में कोई चमक ना थी |चेहरा निस्तेज और भावशून्य था |मैंने एक नजर आकाश की तरफ देखा | हल्का चमक रहा सूर्य पुनः बादलों में मलिन हो गया था |

पुआल पड़ने के बाद पहले काला तेज़ धुआं उठता और फिर लपट |धुएँ से बचने की कोशिश में मैं उसकी तरफ सरका और लपट की आँच बढ़ने पर थोड़ा और उसकी ओर खिसक गया |पर उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी |लपट कम होने पर मैं हल्का सा अलाव के पास खिसकता और वो झट से एक ढेर पुआल और रख देती |

“सर्दी में आग चुम्बक की तरह है पर ये पुआल का आग- - - “ मैंने हाथों को रगड़ते हुए कहा

“कहावत ह कि पोरा क तापल अउर करज ज़्यादा दिन ना पोसाला “ उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा

मैंने देखा कि उसके फीके चहरे पर हल्का सा उजलापन प्रकट हुआ था ठीक उसी तरह जैसे आकाश का सूर्य बादलों के धुंधलके से निकलकर कुछ चमकदार हो गया था

“तब से तुम गई नहीं |”मैंने बर्फ की पिघलन को महसूस करते हुए कुछ और बूंद पीने की चेष्टा की

“जाए के रहनि पर मम्मी-पापा नहिं भेज रहे- - -ससुर जी आए थे लिवाने तीन महिना पहिले |”

“पर वहाँ जाकर करोगी भी क्या !------देवर ने तो शादी से मना कर दिए थे ना ?”

“हाँss----कहते थे भाभी को दूसरी भावना से नहीं देख पाएँगे  ” गहरी साँस लेकर बोली और फिर पुआल लाने को उठ गई

“हो सकता है उन्हें कोई और पसंद रहा हो ?”

“नहीं,तब तो उन्होंने इन्टर की परीक्षा दी थी |मुझसे छह साल छोटे हैं |वो मुझसे कोई बात नहीं छुपाते थे | कोई भी जरूरत होती तो भाई से ना कहकर मुझे कहते थे |”

“वैसे ऐसे मामले में जबरी होनी भी नहीं चाहिए |आज ही के अख़बार में मैंने पढ़ा था कि एक सोलह साल के देवर की उसकी तीन बच्चों वाली भाभी से शादी करवा दी गई----शादी के बाद वो

लड़का फाँसी लगा लिया |” मैंने दिशा बदलते धुएँ से बचते हुए कहा

“वो बहुत अच्छे लोग हैं |मैं नहीं चाहती की मेरी वजह से किसी की ज़िन्दगी नर्क बने |मैं जब तक रही मुझे सिर माथे पर रखा गया है |इतना प्यार सम्मान तो मुझे मइके में भी नहीं मिला ---बस इस खुशी की उम्र छोटी थी----पता नहीं किसकी नज़र-----“मैंने देखा कि आग बुझने लगी है मैंने लपक थोड़ा सा पुआल लाकर डाल दिया

“तो क्या ससुराल वालों ने खानदान में कहीं बात नहीं चलाई ?”

“पिताजी(ससुर) चाहते हैं कि मैं उनके घर में ही रहूँ ----वो अब भी कोशिश कर

रहे हैं |”

“अच्छे लोगों को दुनियाँ चाहती है |मेरे पड़ोस में भी एक ऐसा कपल है |देवर उनसे छह साल छोटा है |जब उनके यहाँ हादसा हुआ तो वह बीस साल का था |आज दोनों इतने घुले-मिले हैं कि कोई जान ही नहीं पाता |वो लेडी भी बहुत अच्छी हैं |----देवर की तुमसे बात होती है ?”

“हाँ,सभी लोगों से बात होती है |----ससुर जी तो कहते हैं बेटी अगर कोई जरूरत हो तो संकोच मत करना |----पर खुद को ही अच्छा नहीं लगता |”

“ये पुआल ओसियाई है “मैंने फिर से बात को आँच देने के लिए कहा

“तभी तो इतना धुआँ है |” उसने सपाट सा उत्तर दिया

“तो फिर और कहीं से कोई बात चली |” मैंने टूटे क्रम को जोड़ते हुए पूछा

“मन ही नहिं करता अब,जीजाजी – - -इतना कुछ देख लिए कि बस यही जी चाहता है कि जल्दी से इस शरीर से मुक्ति मिले “वो दहकते पोरे को देखते हुए बोली

“अभी तो तुम बहुत छोटी हो---बामुश्किल पच्चीस-छब्बीस !और अभी से इतनी निराशा !”

“क्या करें जीजाजी !अभी मेरे बाद दूठो बहिन हैं ----मेरे चक्कर में उनकी भी बात रुकी हुई है |”अपराधबोध से उसका  चेहरा मलिन हो उठा

“पर अपनी दशा की तुम तो जिम्मेवार नहीं हो ----इस खिलौने में चाभी भरने वाला तो ऊपर वाला है |चाभी खत्म और खिलौना बेकार-----इसके लिए खुद को क्यों दोष देना |” मैंने एक दार्शनिक की तरह कहा

“आप सही कह रहे हैं |पर देखिए पुआल की आग कुरेदने में यह कइन भी सुलगने लगी है |”

उसने हाथ में पकड़ी पतली सुलगती कईन को मिट्टी पर रगड़ते हुए कहा |

मैं समझ नहीं पाया कि ये ईशारा उसकी तरफ़ था या मेरे प्रति| पर फिर भी मैंने बात को जारी रखने के लिए कहा-मैं जानता हूँ कि उपदेश देना सरल है पर उसे जीना बहुत कठिन |पर मैंने भी तुम्हारे दर्द को अनुभव किया है |मैं स्वयं इस पीड़ा का भोक्ता हूँ |मैं यह भी समझता हूँ कि ज़िन्दगी की दूसरी पारी शुरु करना इतना आसान नहीं है और एक स्त्री के लिए तो बिल्कुल नहीं |

“पहली दीदी को क्या हुआ था ?” उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा

“बीमार थी---बीमारी समझ नहीं पाया---उसकी जिद्द और अपने अनुभव की कमी के कारण उसे भाई की शादी में जाने दिया---एक तरह से मैं ही उसकी मौत का कारण हूँ |” मैंने सामने खड़े सूखे बेर-पेड़ की तरफ देखते हुए कहा

“आपने कोई जान-बुझकर तो नहीं किया| अगर आप जानते तो भेजते ही क्यों ?” मैंने पाया कि मेरे कथन से कौड़े की राख कुछ-कुछ उड़ चली है और उसका मन तेज़ पिघलना शुरु हो गया है |

मैंने नाक में भर आए पानी को छिनका और मुँह में आई बलगम को खखार के थूका और कुछ सोचने लगा

“आप को तो सरदी हुई है |”

“हाँ,लगता है बलगम सूख गया है |” मैंने गले के अंदर से आ रही दुर्गन्ध को महसूस करते हुए कहा

“अजवाइन और कड़ू तेल पैर-हाथ में मलिए और आग सेंकिए|आराम होगा |” उसने एक ज्ञानी की भाँति कहा 

“डाक्टरी करी हो क्या !” मैंने माहौल को हल्का करने की गरज से पूछा

“ये तो दादी-परदादी का ज्ञान है |यहाँ ना तो इतने डाक्टर हैं ना हर कोई जरा-जरा सी बात पर टिकिया(दवाई ) खाता है |” उसने फींकी मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया

“मेरे विचार से एक साल हो गया होगा ---तुम्हारी शादी हमारी इस शादी के बाद हुई थी ना ?”

“मालती दीदी से पहले हुई थी -----अब तो इस घटना को भी डेढ़ बरिस होने को आया |”

“तो क्या शादी से पहले पता नहीं था या ससुराल वालों ने जानबुझकर छुपाया था ?”

“पता नहीं पर एक महीने तक सब ठीक था |एक दिन उन्हें अचानक बुखार लगा |फिर बाद में दिमागी बुखार बन गया |लम्बा इलाज चला और ये ठीक भी हो गए थे |गाँव आ रहे थे |सासजी  पूजा मानी थीं और ट्रेन में सोते हुए ही------|”उसकी आँख भर आई थी

“माफ़ करना मैंने तुम्हारे घाव को—“ मैंने गहरी साँस लेते हुए कहा

“कोई बात नहीं जीजाजी आप ने मवाज निकाली है वरना लोग तो घाव पर नमक-मिरच डाल देते हैं |” उसने घर की छत पर फ़ोन पर बतियाती चाची की तरफ ईशारा करते हुए कहा

“पता है जिस रोज़ मैंने तुम्हारी दीदी(पहली पत्नी ) को खोया उसी रोज़ हमें ट्रेन से वापस दिल्ली आना था |हम दोनों की ज़िन्दगी में ये ट्रेन कॉमन है |मैं जब सुबह उठा तो वह शांति से सो रही थी |मुझे लगा शायद बीमारी और थकावट है |मैंने उसकी मौसरी बहन को भी उसे जगाने से रोक दिया पर बाद में उसकी मौसी को ----” ऐसा कहते हुए मेरा गला रुंध आया

“हम लोग जब बनारस आए तो देखा कि स्टेशन पर गाँव-घर के दस लोग खड़े थे |ससुरजी को  पहले ही मालूम हो गया था पर उन्होंने हममें से किसी को अहसास नहीं होने दिया |सास ने एक बार उन्हें पुकारा तो डाँट कर कह दिया कि बीमारी से उठा है इसे आराम करने दों “ ऐसा कहते हुए उसकी भी आवाज रुंध गई थी |

“शायद अगर उस समय पता चल जाता तो बाकी यात्री परेशानी खड़ी कर देते---“ मैंने अपना गला साफ़ करते हुए कहा और वो आग कुरेदने लगी |कुछ देर सन्नाटा रहा |

“तुम्हें आगे की सोचना चाहिए |अभी तो केवल चौब्बीस की हुई हो |जो गया वो तो वापिस नहीं आने वाला ----पर ज़िन्दगी तो चलती हुई रेलगाड़ी है---तुम्हें इस तरह दुखी देखकर तुम्हारे मम्मी-पापा पर क्या गुजरती होगी |”

“आप सही कह रहे है पर किस्मत के आगे किसका जोर है |” उसने कईन आग में फैंक दी और अपनी सूनी कलाईयों की तरफ देखने लगी

“मेरे पिताजी का जाति-बिरादरी में अच्छा व्यवहार है |कई रिश्ते करा चुके हैं |भगवान ने चाहा तो-----पर मुझे तुम्हारा बायोडाटा चाहिए |”मैंने गला साफ़ करके कहा

“नाम-गाम-पता तो आप जानते ही हैं |”

“क्या तुम्हारी कोई चॉइस----मेरा मतलब बच्चा चलेगा या नहीं,विधुर ही चाहिए या तलाकशुदा भी चलेगा |”

“आप ज़्यादा ज्ञानी हैं |ज़्यादा दुनियाँ देखें हैं----कोई चार बच्चों का बाप ले आता है तो कोई बाप की उम्र वाला ----कभी-कभी मन करता है कि------“ वो फिर रुआंसी होने लगी थी

“शहरों में तलाक लेने का ट्रेंड बढ़ रहा है और लड़को से लड़कियों इस मामले में आगे हैं और इसका कारण जानती हो क्या है !”

वो मेरा मुँह देखने लगती है और मैं बात आगे बढ़ाता हूँ

“ये पुआल झट से जलकर समाप्त हो जाती है पर ये लकड़ी कि टहनियाँ जितनी मोटी और हरी होती हैं उतनी ही मुश्किल इन्हें भस्म करने में लगती है |”उसकी शक्ल से मैं समझ जाता हूँ कि

मेरे भारी-भरकम शब्द उसकी वेदना बढ़ा रहे हैं तो मैंने आम-लहजे में कहा

“तुम्हें आत्म-निर्भर बनना चाहिए |कुछ ऐसा पढ़ना-सीखना चाहिए जो तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा कर सके |मेरा मतलब कुछ ऐसा करों कि तुम्हें अपनी जरूरतों के लिए किसी के आगे हाथ ना फैलाना पड़े---तुम्हारें घर की हालत भी तो बहुत अच्छी नहीं है --शहर की लड़कियाँ आत्म-निर्भर होती हैं इसलिए वो पुआल नहीं हैं |”

“क्या करें जीजाजी ! जो कुहरा मन में बैठ गया है छंटता ही नहिं---किसी चीज़ में मन नहीं लगता |कभी-कभी गाँव घर का कोई आ जाता है तो उससे बोल बतिया लेती हूँ वर्ना मेरा तो सारा दिन दुआर-ओसार में अकेले बीतता है |”

“जब हवा बहती है तो कुहांसे को काट देती है |जब तुम बाहर निकलोगी तो अधिक लोगों से मिलोगी---नए अनुभव मिलेंगे---ये भी जानोगी की कैसी-कैसी परिस्थतियों में लोग जी रहे हैं –चारदीवारी में तुम खुद को सबसे दुर्भाग्यशाली मानोगी पर  बहर जाकर देखों-दुनियाँ में कितने गम हैं----क्या तुम्हें अच्छा लगता है जब तुम्हें कोई बेचारी कहता है! मुझे तो इस शब्द से भी कोफ़्त है !

“अच्छा तो नहीं लगता पर लोगों की जुबान पर ताले भी तो नहीं लगा सकते |”उसने सिर झुकाए हुए ही कहा

“तो इस बेचारगी से बाहर निकलने का रास्ता तलाशों ! अगर मैं मदद की जरूरत हो तो बताना |”

“जी |” उसने मेरी  तरफ़ देखते हुए कहा

 

“अच्छा सुनों !मैं सोचता हूँ कि तुम्हारी जानकारी कम्प्यूटर पर डाल दूँ जिससे और लोग भी देख सकें ---चांस बढ़ जाएगा |”कहने को तो मैंने कह दिया पर पर मैं जानता हूँ कि एक साल तक चकाचौंध भरे इस बाजार में मेरा खुद का,एक सरकारी नौकर का विज्ञापन खुद को बेच नहीं सका और अंत में अगुआ की परम्परा से ही मेरी नौका पार लगी |

“आप ज़्यादा अच्छे से जानते होंगे |मैं तो बहुत पढ़ी-लिखी नहीं हूँ |” तभी आसपास के कुछ और लोग आकर वहाँ खड़े हो गए और फिर इधर-उधर की बाते शुरु हो गई

उस रोज़ से अपने ससुराल के घर से निकलने के बाद मेरी नजर उसके घर की तरफ ही जाती और उसे नजरे मिलने पर एक अजीब सी शांति महसूस होती |उस रोज़ के बाद हमारी हल्का-फुल्की बातचीत होने लगी |मैंने महसूस किया की सम्बन्ध का तापमान बढ़ने लगा है और बर्फ अब पिघलना शुरु हो चुकी है |

अब जब भी वह पुआल जलाती मैं बिना किसी संकोच के उसके दुआरे चला जाता |कभी-कभी जब मेरे दुआर पर कौड़ा जल रहा होता तो ससुरालपक्ष से घिरा में प्रतीक्षा करता कि वो आग तापने इधर आ जाए |कई बार वो आ जाती और कई बार वह अपने दुआर पर पुआल सुलगा कर तापने लगती और उस वक्त महसूस होता कि मेरे फेफेड़े उस धुएँ से भर के काले हो रहे हैं |मुझे उसकी इस हरकत पर खीझ होती और अपनी स्थिति पर क्षोभ |इस बीच एक बार मैंने पत्नी से अपने मन की बात कही | उसने यह कहकर मेरी बात काट दी कि कुछ ऊँच-नीच हो गया तो हम लोग ही दोषी बनेंगे |

मैंने फिर इस बात की पत्नी से चर्चा करना ठीक नहीं समझा| स्त्री-बुद्धि जाने क्या सोचने लगे ?

सुसराल के आखिरी दिन मैंने देखा कि उसके दुआर पर रखा पुआल का ढेर लगभग समाप्त हो गया है और वहाँ राख का ढेर लगा हुआ |मैंने ये भी नोटिस किया कि उसके दुआर पर कोई भी जाकर बे-रोक टोक पुआल जलाता है और हाथ सेंक कर चला आता है |पर मेरी मंशा सिर्फ हाथ सेंकने की नही थी |मैं जानता हूँ कि किसी कलाकर के हाथ जाने पर वो इस पुआल से खुबसुरत चटाई ,पायदान,रस्सी और जाने क्या-क्या बना सकता है |मैंने तय कर लिया था कि मुझे एक माध्यम बनना है |इस पुआल को जलने या सड़ने से बचाना है और किसी कलाकार के हाथों में इसे सौपना है ताकि वो एक लम्बी अवधि तक एक जीवन-कृति बनी रहे |

मैं अपने शहर आ चुका हूँ |पिताजी से उसकी चर्चा छेड़ चुका हूँ और पिताजी से उसके रिश्तों पर मंथन होने लगा है |मैंने ऑनलाईन माध्यमों से भी उसका प्रोफाइल रजिस्टर करना शुरु कर दिया है |मैं उसे सिर्फ एक कहानी बनाकर नहीं छोड़ना चाहता मैं उसे दोबारा एक जीवंत-कृति के रूप में देखकर ही संतुष्ट हो पाऊँगा |

सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )

 

 

 

 

 

 

 

Views: 596

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"वाह बहुत खूबसूरत सृजन है सर जी हार्दिक बधाई"
5 hours ago
Samar kabeer commented on Samar kabeer's blog post "ओबीओ की 14वीं सालगिरह का तुहफ़ा"
"जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, आमीन ! आपकी सुख़न नवाज़ी के लिए बहुत शुक्रिय: अदा करता हूँ,सलामत रहें ।"
22 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 166 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
yesterday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ पचपनवाँ आयोजन है.…See More
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"तकनीकी कारणों से साइट खुलने में व्यवधान को देखते हुए आयोजन अवधि आज दिनांक 15.04.24 को रात्रि 12 बजे…"
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, बहुत बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय समर कबीर जी हार्दिक धन्यवाद आपका। बहुत बहुत आभार।"
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जय- पराजय ः गीतिका छंद जय पराजय कुछ नहीं बस, आँकड़ो का मेल है । आड़ ..लेकर ..दूसरों.. की़, जीतने…"
Sunday
Samar kabeer replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब, उम्द: रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a blog post

ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना

याद कर इतना न दिल कमजोर करनाआऊंगा तब खूब जी भर बोर करना।मुख्तसर सी बात है लेकिन जरूरीकह दूं मैं, बस…See More
Saturday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"मन की तख्ती पर सदा, खींचो सत्य सुरेख। जय की होगी शृंखला  एक पराजय देख। - आयेंगे कुछ मौन…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"स्वागतम"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service