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ग़ज़ल -- दुनियादारी में अब तक हम बच्चे थे

22--22--22--22--22--2

जो तूफ़ाँ के डर से तटपर ठहरे थे
बशर नहीं थे वो पुतले मिट्टी के थे

कब तक तेरी हाँ सुनने को रुकते हम
हमको अपने फ़र्ज़ अदा भी करने थे

दिल के ज़ख़्म बयाँ करना कुछ मुश्किल था
आँखों में आँसू लब पर अंगारे थे

हॉट पे क्या बिकता था मुझको क्या मतलब
मेरी जेब में बस ख़्वाबों के सिक्के थे

जिसका पेट भरा है वो क्या समझेगा
भूख से मरने वाले कितने भूखे थे

दरियाओं के संग न अपनी यारी थी
प्यास बुझाने को होंठों पर क़तरे थे

सीख रहे हैं धीरे धीरे झूठ कपट
दुनियादारी में अब तक हम बच्चे थे

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 7, 2017 at 3:39pm

आदरणीय दिनेश जी बहुत खूब सूरत ग़ज़ल कही है आपने , बहुत बहुत मुबारकबाद 

Comment by Ravi Shukla on June 7, 2017 at 2:14pm

बहुत ख़ूब आदरणीय दिनेश जी. इस बढ़िया ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.

Comment by Gurpreet Singh jammu on June 6, 2017 at 10:52am

आ हा हा क्या खूबसूरत ग़ज़ल है आदरणीय दिनेश जी,, आनंद आ गया पढ़कर,,
कब तक तेरी हाँ सुनने को रुकते हम
हमको अपने फ़र्ज़ अदा भी करने थे
बहुत खूब

Comment by Mahendra Kumar on June 5, 2017 at 8:36pm

सीख रहे हैं धीरे धीरे झूठ कपट
दुनियादारी में अब तक हम बच्चे थे ...बहुत ख़ूब आ. दिनेश जी. इस बढ़िया ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.

//हॉट पे क्या बिकता था मुझको क्या मतलब// शायद यहाँ पर "हाट" होना चाहिए. देख लीजिएगा. सादर.

Comment by दिनेश कुमार on June 5, 2017 at 7:07pm
आभार सतविंदर भाई। मुहब्बत है आपकी।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on June 5, 2017 at 6:00pm
दुनियादारी में हम अबतक बच्चे थे
क्या खूब दिनेश भाई,जिंदाबाद

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