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ग़ज़ल -तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं - ( गिरिराज )

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छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं

फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं

 

मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये  

सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं

 

आइनों से जो भी नफ़रत करते थे   

जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं

 

बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा

इंसाँ  दीमक जैसे अन्दर निकले हैं

 

अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्

जब नापे तो सारे सागर निकले हैं

 

औंधे पड़े हुये हैं सागर से दावे

कुछ नाले, तो बाक़ी गागर निकले हैं

 

क्या सांपों के बिल में पानी चला गया  ?

तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं

 

आवाज़ तभी होती है जब उथला पन हो

चुप्पी से ही सभी समन्दर निकलें हैं

**************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 23, 2017 at 9:27am

आदरणीय सतविन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on March 23, 2017 at 9:27am

आदरणीय वासुदेव भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 23, 2017 at 9:26am

आदरणीय वासुदेव भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on March 22, 2017 at 9:31pm
आदरणीय गिरिराज सर उम्दा गजल कही है!वाह्ह्ह् वाह्ह्ह्!हर शेर के लिए दिल से दाद हाज़िर है।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 21, 2017 at 6:12pm
आ0 गिरिराज जी बहुत सुंदर ग़ज़ल। शेर दर शेर दाद हाजिर है।

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Comment by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 3:40pm

आदरनीय मो. आरिफ भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 3:39pm

आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 3:38pm

आदरणीय सुशील भाई ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभार ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 3:37pm

आदरणीय रवि भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 3:37pm

आदरनीय गुरप्रीत भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।

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