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छोटे पेट वाले (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

बेटे के ही नहीं, बिटिया के भी अरमान पूरे करने थे। बच्चों की ज़िद पर गांव से अपना अनचाहा, लेकिन बच्चों व पत्नी का मनचाहा पलायन कर तो लिया था, लेकिन शहर की न तो आबो-हवा रास आ रही थी, न ही शहर वालों के आचरण और कटाक्ष वगैरह! किसी तरह किराए के कमरे में बच्चों के साथ ठहरे हुए थे। सुबह चार बजे उन्हें पढ़ने के लिए जगाकर आज साइकल उठायी और चल पड़े लाखन बाबू किसी मन चाही तलाश में। कुछ किलोमीटर दूर जाकर एक लम्बी सी साँस लेकर बड़बड़ाने लगे "हे भगवान, आज साँस लेना अच्छा लग रहा है इस हरियाली में! अच्छा हुआ कि ज़िद करके यह साइकल भी शहर ले आया!"

चिकनी सड़क के दोनों तरफ के घने पेड़ों को देखा, फिर अपनी पुरानी साइकल को और फिर अपने धोती-कुर्ता, तौलिया और चप्पल को! तभी याद आ गये शहर की मशहूर कोचिंग वालों, प्राइवेट होस्टल वालों और महँगे मकान-मालिकों के कटाक्ष!

"लगता है तुम इतना खर्च वहन नहीं कर पाओगे, गांव लौट जाओ, बच्चों को खेती में लगाओ, फायदे में रहेंगे!" एक ने सलाह दी थी।

दूसरे ने कहा था "सुख-सुविधा और बच्चों की नौकरी के लिए, प्रतियोगिता परीक्षाओं में कामयाब होने के लिए जितनी बुद्धि की ज़रूरत होती है, उतनी ही मोटी रकम की! क्या दोनों है तुम्हारे बच्चों के पास!"

"होस्टल में नहीं रख पाओगे तुम बच्चों को, और अगर दूर किसी बस्ती में किराए के कमरे में रहेंगे, तो फिर हो गई उनकी नैया पार!" इस तीसरी टिप्पणी से लाखन बाबू बहुत विचलित हो गये थे। मात्र दसवीं कक्षा तक पढ़े-लिखे होने और दूसरों के खेतों पर मजदूरी करना उन्हें उतना बुरा नहीं लगता था जितना कि यह सब सुनना। अपना अच्छा-भला खेत बेचकर सादा जीवन जी कर होनहार बच्चों के भविष्य की चिंता करने वाले लाखन बाबू को अब यक़ीन होने लगा था कि छोटे पेट वालों के लिए बड़े पेट वालों के शहर में रहना तो दूर, ठहरना भी कष्टदायी है!

सोचते-सोचते साइकल चलाते वे वापस बस्ती के उस कमरे तक पहुँच गये। लम्बी साँसें चल तो रहीं थीं, लेकिन आबो-हवा बदल चुकी थी।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on March 17, 2017 at 10:04pm
रचना पर समय देकर अनुमोदन व हौसला अफ़ज़ाई हेतु बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी साहब, आदरणीय तेजवीर सिंह जी, आ. महेन्द्र कुमार जी, आ. राजेश कुमारी जी, आ. डॉ. आशुतोष मिश्र जी व आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी। सुझाव हेतु हार्दिक आभार आदरणीय महेन्द्र कुमार जी।
Comment by Mahendra Kumar on March 6, 2017 at 7:17pm
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी, बढ़िया कटाक्षपूर्ण लघुकथा है आपकी। हार्दिक बधाई स्वीकार करें। एक छोटा सा निवेदन है कि शीर्षक पर पुनर्विचार करें। इसके पीछे कारण यह कि इसी से मिलते-जुलते शीर्षक की एक लघुकथा और है आपकी, संभवतः "बड़े पेट के लोग"। सादर।
Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on March 6, 2017 at 10:40am

कोचिंग, होस्टल, मकान आदि सुविधाएँ जो देश के प्रत्येक नागिरक को मिलनी चाहिये, के अभाव को दर्शाती अच्छी रचना के सृजन हेतु बधाई आपको आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी जासब


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Comment by rajesh kumari on March 4, 2017 at 9:17pm

लघु कथा अपना सन्देश छोड़ने में कामयाब है बेहतरीन कटाक्ष किया है बहुत बहुत बधाई आपको आद० शेख़ उस्मानी जी 

Comment by नाथ सोनांचली on March 4, 2017 at 3:46pm
नाम गलत लिखने के लिए क्षमा चाहता हूँ।
आदरणीय शेख सहजाद उस्मानी साहब सादर अभिवादन। मेरी इस गलती पर मुझे मुआफ़ करें, सादर
Comment by नाथ सोनांचली on March 4, 2017 at 3:44pm
आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी सादर अभिवादन। बढ़िया लघुकथा कही आपने, जो तथ्य आपने रखे, दिल को छू गये, वैसे मै लघुकथा लिख नही पाता फिर भी पाठकीय दृष्टिकोण से इतना कहूंगा कि इसमें कुछ फेरबदल कर और रोचक और छोटा किया जा सकता है। आपके उम्दा प्रयास के लिए मेरी हार्दिक बधाई निवेदित हों। सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 4, 2017 at 3:20pm

आदरणीय शेख जी आपकी हर लघु कथा जबरदस्त होती है इस रचना पर हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Mohammed Arif on March 4, 2017 at 2:36pm
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छा कटाक्ष किया आपने अपनी लघुकथा के माध्यम से । बधाई स्वीकार करें ।
Comment by TEJ VEER SINGH on March 4, 2017 at 12:08pm

हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी। बेहतरीन कटाक्ष करती सुन्दर लघुकथा ।

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