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कुकुभ छंद -२

जीवन में दुःख के लिए तो, गुण जरुरी नहीं होता

हमेशा दुख है घुसपैटिया, अनाहूत पाहुन होता |

योग्यता, प्रतिभा जरूरी है, गर दिल में सुख की इच्छा

चढ़ता वही पर्वत शिखर पर, जिसमे है सशक्त स्वेच्छा |

 

प्रकृति कब कुपित हो लोगों से, कोई नहीं कभी जाने

करते गलती मानव जग में, कभी भूल से अनजाने |

जल प्रलय में डूबे हजारों, मकान थे नदी किनारे

ज़खमी न जाने जितने हुए, कितने अल्ला को प्यारे |

 

मौलिक एवं अप्रकाशित      

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2016 at 9:43am

आदरनीय कालीपद भाई , कुभुक छंद का बहुत अच्छा प्रयास हुआ है , हिल से बधाइयाँ ।

तुकांतता और कलों पर और ध्यान देना ज़रूरी है ।

Comment by Kalipad Prasad Mandal on August 24, 2016 at 7:36pm

आदरणीय समर कबीर साहिब,आदाब , प्रोत्साहन के लिए हृदयतल से आभार   

Comment by Kalipad Prasad Mandal on August 24, 2016 at 7:33pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी , आपका क्रम ज्यादा अच्छा लयात्मक है | मैं तो अभी गुनगुनाने की कोशिश कर रहा हूँ | गाना तो बहुत दूर है | आप बताते जाइये हम कोशिश करते जायेंगे | गणित जैसा तार्किक विषय का विद्यार्थी रहा, अब भाषा के भावों को पकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ | 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 23, 2016 at 9:03pm

आदरणीय मात्रा विन्यास ही नहीं रिदम भी अपेक्षित है मैं आपके ही शब्दों का क्रम बदलता हूँ और रिदम का अंतर देखिये -

कब हो प्रकृति कुपित  लोगों से कोई कभी नहीं जाने

Comment by Samar kabeer on August 23, 2016 at 3:04pm
जनाब कालीपद प्रसाद मंडल जी आदाब,बहुत बढ़िया कुकुभ छन्द लिखे आपने दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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