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गजल (पुरस्कारों को इंगित) (मनन)

2122 2122 2122 2


मर रहे क्यूँ नाम के अखबार की खातिर
कब बने तमगे कहो फनकार की खातिर।1

लिख रहे जो बात कुछ भी काम आये तो
गर बहें आँसू किसी दरकार की खातिर।2

चाँद-सूरज जल रहे फिर मोम गलती है,
रूठते हैं कब भला उपहार की खातिर।3

बाढ़ आती है जहाँ कुछ- कुछ पनपता है
है कहाँ सब लाजिमी घर-बार की खातिर।4

खुद खुशी हित थी लिखी बहु जन मिताई ही
लिख रहे कुछ लोग निज उपकार की खातिर।5

शोखियों का शौक रखते बदगुमां कुछ हैं
कौन मरता है यहाँ आभार की खातिर।6

छेंकते कागज सियाही भी बिदकती है
लिख रहे आतुर मुए 'सरकार' की खातिर।7
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment

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Comment by Manan Kumar singh on August 26, 2016 at 8:36pm
आदरणीया प्रतिभा जी, आभार आपका।आज वस्तुत: कौन लिख रहा की बदौलत क्या लिख रहा,यह गौर करने की बात है।खैर गजल ने आपका ध्यान आकृष्ट किया,पसंद आयी,मेरे लिए खुशनसीबी है,सादर।
Comment by pratibha pande on August 26, 2016 at 10:25am

उपहारों ,तमगों और वाही वाही में उलझी कलमों पर अच्छा लिखा है आपने ..बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय 

Comment by Manan Kumar singh on August 25, 2016 at 7:07pm
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीया राहिला जी।
Comment by Rahila on August 25, 2016 at 1:42pm
क्या खूब कह गयी आपकी ग़ज़ल आदरणीय सर जी!कमाल का हर शेर हुआ ।खूब बधाई आपको।सादर
Comment by Manan Kumar singh on August 25, 2016 at 1:37pm
आपका हार्दिक आभार आदरणीय मिश्राजी।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 25, 2016 at 12:49pm

आदरणीय मनन जी उम्दा शेरो के इस ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर

Comment by Manan Kumar singh on August 25, 2016 at 7:09am
आदरणीया राजेश कुमारी जी,आपकी हौसला-आफजाई का शुक्रिया।
Comment by Manan Kumar singh on August 24, 2016 at 11:15pm
आदरणीय प्रतिभा जी,गजल आपको पसंद आयी यह मेरे लिए प्रेरणा का विषय है;आपका बहुत बहुत आभार।
Comment by Manan Kumar singh on August 24, 2016 at 7:24pm
बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम समर साहब।

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Comment by rajesh kumari on August 24, 2016 at 7:07pm

मर रहे क्यूँ नाम के अखबार की खातिर
कब बने तमगे कहो फनकार की खातिर।1---वाह्ह्ह्ह नसीहत भरा कटाक्ष 

बहुत बहुत बधाई 

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