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मेरे महबूब सपनों से हक़ीक़त बन तू आ जाए
मेरा उजड़ा हुवॉ जीवन मेरी जाँ फिर सवर जाए


मुझे अहसास अब होने लगा है इश्क़ में तेरे
कहीं ना ज़िन्दगी तेरी ही गलियों में गुज़र जाए

जिसे हो जुस्तजू तेरी वो बेचारा किधर जाए
जिए वो ज़िंदगी अपनी या आहें भर के मर जाए

मैं अक्सर आह भरता हूँ तेरे दीदार के ख़ातिर
झलक तेरी मिले गर तो मेरा जीवन सँवर जाए

तेरी गलियों की मिट्टी भी मुझे जन्नत से प्यारी है
चले गर साथ हम दोनों मुहब्बत भी निखर जाए

निगाहें मुन्तज़िर मेरी है मुद्दत से तेरीे ख़ातिर
सहारा जाविदाँ मुझको मिले जीवन सुधर जाए

बड़ा नादान ये दिल है अभी इससे न रूठो तुम
चटक कर तेरे कूचे में न शीशे सा बिखर जाए

मौलिक अप्रकाशित 

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Comment by Amit Tripathi Azaad on May 2, 2016 at 12:01pm

आदरणीय गिरिराज जी आपके द्वरा दिया गया सुझाव का सम्मान करते हुवे ये बता दूँ कि मै अभी सीख  ही रहा हूँ पर आपकी उचित सलाह को नमन करता हूँ 

Comment by Amit Tripathi Azaad on May 2, 2016 at 11:57am

आदरणीया राजेश कुमारी जी आपके द्वारा दी गई सलाह को सर आँखों पर रखते हुवे आभार प्रगट करता हूँ 


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Comment by rajesh kumari on April 25, 2016 at 10:05pm

आ० अमित जी ,प्रयास रत रहिये बेहतर कर सकेंगे विद्वद जनों की राय काबिले गौर है 


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Comment by गिरिराज भंडारी on April 25, 2016 at 6:40pm

आदरणीय अमित भाई , गज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है , प्रयास जारी रखियेगा ! गज़ल की कक्षा के पाठ जरूर पढियेगा । आपको हार्दिक शुभकामनाये और बधाइयाँ ।

Comment by Ravi Shukla on April 24, 2016 at 3:35pm
आदरणीय अमित जी आज़ाद अच्छा प्रयास हुआ है । आदरणीय समर साहब की सलाह पर ध्यान दीजियेगा । सादर ।
Comment by Samar kabeer on April 24, 2016 at 2:38pm
जनाब आज़ाद साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है लेकिन अभी अभ्यास करना होगा,ओबीओ पर ग़ज़ल की कक्षा का लाभ लें ।
मतले के ऊला मिसरे में क़ाफ़िया नदारद है, तीसरे शैर में सानी मिसरा ऊला की जगह है,आख़री शैर में तुम और तेरे का फ़र्क़ है, प्रयासरत रहें ।

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