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सिर्फ तुम्हारी ......अतुकांत // डॉ. प्राची

मेरा,
तुम्हारी होने का बोध-
घुला है संदल सा
मेरी चेतना में,
कि विस्तारित होती ही जाती है
प्रेम सुगंधि
चहुँदिश.....
ये बोध-
स्पंदन स्पंदन सा
अंकित है
संवेदी कोषों की स्मृतियों में,
कि आईना भी अब मुझमें
सिर्फ तुम्ही को तो पाता है.....
गूँजती हैं
सिर्फ तुम्हारी स्वर लहरियाँ
अस्तित्व की अतल गहराइयों में,
जब ख़ामोशी की चादर ओढ़
डूबने लगती हूँ मैं अक्सर अकेली.....
प्रेमअगन में तप-तप,
यों गेरुआ हुई जाती है रूह-
कि झुलस जाता है
तुमसे इतर हर ख़याल क्षण भर में
ज्यों विलय ही बन चुका है नियति.....
पर,
अकेला छोड़ जाने से पहले
यदि,
कर सको
तो कर दो आज़ाद मुझे
"सिर्फ तुम्हारी" होने के
इस बोध से.....

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 10, 2016 at 10:12pm

यदि,
कर सको
तो कर दो आज़ाद मुझे
"सिर्फ तुम्हारी" होने के
इस बोध से.....-------------फिर् पुरुष भी  'सिर्फ तुम्हारा' क्यों रहे. . बंधन  भी दोनों के लिए है और आजादी भी --अपने-अपने भाव . सादर ,

Comment by Rahila on February 9, 2016 at 4:38pm
वाह.. आदरणीया प्राची दी! पहली बार आपकी लेखनी की चमक देख रही हूं । बहुत शानदार लेखन।बहुत बधाई ।सादर
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 9, 2016 at 1:39pm
सम्पूर्ण उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 9, 2016 at 2:12am
आदरणीय डॉo प्राची सिंह जी , इस शानदार अतुकांत कविता के लिए बधाई , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 9, 2016 at 1:33am

आदरणीया प्राची जी, बहुत ही शानदार अतुकांत.... विशेष अंतिम पंक्तियाँ. मुग्ध कर दिया आपने. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. 

आज न जाने क्यों यह कविता पढ़ते हुए 'इज़ाज़त' फिल्म याद आ गई.

Comment by pratibha pande on February 8, 2016 at 9:52pm

 अतुकांत में पिरोई  इस खूबसूरत  अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीया प्राची जी 

Comment by Sushil Sarna on February 8, 2016 at 2:58pm

प्रेमअगन में तप-तप,
यों गेरुआ हुई जाती है रूह-
कि झुलस जाता है
तुमसे इतर हर ख़याल क्षण भर में
ज्यों विलय ही बन चुकी है नियति.....
यदि,
कर सको
तो कर दो आज़ाद मुझे
"सिर्फ तुम्हारी" होने के
इस बोध से....

बहुत सुंदर आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी ...... अंतर्मन की भाव सरिता को आपने जिस ख़ूबसूरती से प्रवाह दिया है वो पाठक को आरम्भ से अंत तक वाह करने के लिए बाध्य कर देता है। इस अनुपम आंतरिक भाव बोध को समेटे अतुकांत प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

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