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ग़ज़ल- छिपे मक्कार हैं बहुत (गिरिराज भंडारी)

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शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत  

बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत

 

किसने कहा कि बज़्म में रहना है आपको

जायें ! रहें जहाँ पे तलबगार हैं बहुत

 

अपनी भी महफिलों की कमी मानता हूँ मैं

है फर्ज़ में कमी, दिये अधिकार हैं बहुत

 

समझें नहीं, कि अस्लहे सारे ख़तम हुये

अस्लाह ख़ाने में मेरे हथियार हैं बहुत

 

नफरत जता के हमसे, जो दुश्मन से जा मिले

वे भी मुहब्बतों के क्यूँ हक़दार हैं बहुत

 

धो लीजिये हुज़ूर हथेली कहीं से आप

ज़ह्नों के साथ, हाथ गुनहगार हैं बहुत    

 

निकलेगा सूर्य तो ये भरम टूट जायेगा

गो रोशनी के सामने दीवार हैं बहुत 

**************************************

 मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 24, 2015 at 9:43pm
बहुत सुंदर आदरणीय गिरिराज सर बहुत बहुत बधाई आपको
Comment by Manan Kumar singh on December 6, 2015 at 11:32am
आदरणीय गिरिराज भाई,बधाइयाँ आपको।
Comment by kanta roy on December 4, 2015 at 5:22pm

शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत
बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत------वाह !!! बहुत खूब ये ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज जी। बधाई।

Comment by Nita Kasar on December 2, 2015 at 6:55pm
बेहद सुंदर ग़ज़ल हुई है बधाई आपको आद०गिरिराज भंडारी जी ।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 1, 2015 at 4:13pm

//धो लीजिये हुज़ूर हथेली कहीं से आप

ज़ह्नों के साथ, हाथ गुनहगार हैं बहुत//

वाह वाह, बेहद संजीदा शेर लगा, बाकी के अशआर भी एक से बढ़कर एक हैं, दादा कुबूल कीजिये आदरणीय भंडारी भाई साहब.

Comment by Dr shyam gupt on November 29, 2015 at 8:41pm

सुन्दर ग़ज़ल ---शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत  ...किसे संबोधित है यह स्पष्ट नहीं है --

Comment by narendrasinh chauhan on November 19, 2015 at 4:49pm

भोत खूब सुन्दर रचना


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Comment by गिरिराज भंडारी on November 17, 2015 at 8:08am

आदरणीया कल्पना जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 17, 2015 at 8:07am

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 12, 2015 at 10:29am
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज जी, दाद कुबूल कीजिए

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