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गजल
2122 2122 2122 212
आपका ऐसे यहाँ आना ठिकाना हो कभी
खिल उठे बगिया मिलन का तो बहाना हो कभी।
धूप का धोया पथिक मैं जल रहा हूँ कामिनी
रूप के जी नेह जल से अब नहाना हो कभी।
लय भरे थे दिन कभी फिर लय भरी थी यामिनी
लौट आयें दिन वही फिर से तराना हो कभी।
भाव मन का भाँप लेतेे बिन कहे बातें हुईं
आ चलें फिर आजमा लें क्यूँ बताना हो कभी?
वक्त ने कितना सताया याद रखना लाजिमी
छक चुके अबतक बहुत अब क्यूँ छकाना हो कभी?
कह रहा हर पल कथाएँ आज अपने प्यार की
हो चुका अबतक बहुत फिर से फ़साना हो कभी।
नेह की नगरी पुरानी पड़ रही क्यूँ है भला
आज से आ फिर करें नजरें-निशाना हो कभी।
हो रहे बेघर बहुत अब बेबसी की मार खा
हो अगर तो आपका दिल आशियाना हो कभी।
भूलता जाता जमाना जो हुआ करता सुखद
साथ हों गर आप तो सपना सजाना हो कभी।
मौलिक व अप्राकाशित@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on October 4, 2015 at 2:21pm
आभार गिरिराज भाई,परिमार्जन करता हूँ।

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Comment by गिरिराज भंडारी on October 4, 2015 at 1:09pm

आदरणीय मनन भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।
हो रहे बेघर बहुत अब बेबसी की मार खाकर  -- इस मिसरे को फिर से देख लीजियेगा -- बेबह्र है ।

Comment by Manan Kumar singh on October 3, 2015 at 7:28pm
आभार आपका आ. वर्मा जी
Comment by Shyam Narain Verma on October 3, 2015 at 2:43pm
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को "

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