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ग़ज़ल - जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही ( गिरिरज भन्डारी )

221 2121 1221 212 ( आ. दुष्यंत कुमार की ज़मीन पर )

( अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नही रही )

********************************************************

जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही

तब से किसी से कोई शिकायत नहीं रही

 

फिर जोश कह रहा है कि टकरा जा संग से

पर होश ये कहे है , वो ताकत नहीं रही

 

मेरी ही कोशिशों में कमी कुछ तो थी ज़रूर

मै क्यूँ कहूँ कि वो मेरी क़िस्मत नहीं रही 

 

बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ, पर

जलने की अब दियों में वो आदत नहीं रही

 

ग़ुरबत के पाँव घर पे मेरे जब से गड़ गये

जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही

 

असबाबे ज़िन्दगी तो बहुत आस पास हैं  

क्यूँ मेरी ज़िन्दगी में वो लज़्ज़त नहीं रही

              

हमने खुशी बनाई है अश्क़ों को बीन कर

सच में खुशी की हम पे इनायत नहीं रही

 

रोना नहीं, कि दिल न पिघल जाये, मोम है   

पत्थर से दो घड़ी मेरी सुहबत नहीं रही

****************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 5, 2015 at 2:06pm

आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 5, 2015 at 1:48pm

आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..दुष्यंत कुमार जी की जमीन पर लिखी इस शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on August 5, 2015 at 1:28pm

आदरणीय दिनेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

Comment by दिनेश कुमार on August 5, 2015 at 4:25am
आदरणीय, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है। दिल से दाद क़बूल करें।
मै क्यूँ कहूँ कि वो मेरी क़िस्मत नहीं रही ...बहुत खूब
फिर जोश कह रहा है कि टकरा जा संग से...वाह वाह

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 10:14pm

आदरणीय मनोज भाई , आपके स्नेह  और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार । मेरी शुभ कामनायें सदा आपके साथ है ।

Comment by मनोज अहसास on August 4, 2015 at 9:22pm
इस खूबसूरत ग़ज़ल पर ये नाचीज़ आपको नमन ही कर सकता है
मेरे प्रणाम स्वीकार करें
और आशीर्वाद दें
कि कभी कुछ लिख पाऊ ऐसा ही
सादर

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 9:17pm

आदरणीया नीरज जी , हौसला अफज़ाई  का तहे दिल से शुक्रिया ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 9:16pm

आदरणीया राजेश जी , आपने सही कहा , मतले में , से की जगह के टाइप कर दिया हूँ , सुधार कर लूंगा । ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on August 4, 2015 at 9:02pm

बहुत खूब ग़ज़ल कही है आपने आ. गिरिराज भंडारी जी। एक एक शेर काबिले तारीफ है।

ग़ुरबत के पाँव घर पे मेरे जब से गड़ गये

जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही।---बहुत खूब


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Comment by rajesh kumari on August 4, 2015 at 8:39pm

जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही----जब से किसी से ...कर लें शायद गलती से के आ गया

बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ, पर

जलने की अब दियों में वो आदत नहीं रही

 

ग़ुरबत के पाँव घर पे मेरे जब से गड़ गये

जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही

 

असबाबे ज़िन्दगी तो बहुत आस पास हैं  

क्यूँ मेरी ज़िन्दगी में वो लज़्ज़त नहीं रही

       बहुत  बेहतरीन ग़ज़ल हर शेर शानदार इन तीन के लिए तो ढेरों दाद लीजिये आ० गिरिराज भंडारी जी 

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