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ग़ज़ल : ये प्रेम का दरिया है इसमें

बह्र : 22  22 22 22 22 22 22 22

 

ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए

याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए

 

फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए

पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए

 

इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं

दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये

 

मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई

मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुये

 

जिन चट्टानों को अपनी सख़्ती पर था ज़्यादा नाज़ यहाँ

उन चट्टानों के वंशज ही सबसे ज़्यादा सुकुमार हुये

 

 सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में

पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बागी हम हर बार हुये

 

जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया

जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुये

-------------

(मौलिक एवँ अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2015 at 6:08pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ जी


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Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2015 at 3:43am

मजा आ गया आदरणीय धर्मेन्द्रजी.. बहुत खूब !

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 29, 2015 at 10:11am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 3:14am

वाह वाह वाह .... शानदार ग़ज़ल हुई  है सभी अशआर लाजवाब है

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी शेर दर  शेर के लिये दाद हाज़िर है

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 22, 2015 at 12:21pm
शुक्रिया आ. शिज्जू जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 22, 2015 at 12:20pm
शुक्रिया आ. राहुल जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 22, 2015 at 12:20pm
शुक्रिया आ. गोपाल नारायन जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 21, 2015 at 9:27pm

वाह मुकम्मल ग़ज़ल ही लाजवाब है आदरणीय  धर्मेन्द्र जी हर शेर के लिये दाद हाज़िर है

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 21, 2015 at 8:31pm
सुन्दर ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 20, 2015 at 1:11pm

इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं

दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये---------बहुत बहुत उम्दा  आ०धर्मेन्द्र जी.

 

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