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देख जलता रोम नीरो सा बजा मत बंशियाँ - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’


2122      2122     2122     212
******************************
पत्थरों  के  बीच   रहकर  देवता  बनकर  दिखा
दीन मजलूमों के हित में इक दुआ बनकर दिखा
****
कर  रहा  आलोचना  तो   सूरजों   की   देर  से
है अगर  तुझमें हुनर तो  दीप सा बनकर दिखा
****
चाँद पानी में  दिखाकर स्वप्न  दिखलाना सहज
बात तब  है  रोटियों  को  तू तवा  बनकर दिखा
****
देख  जलता  रोम  नीरो  सा  बजा मत बंशियाँ
जो हुए  बरबाद  उनको  आसरा  बनकर दिखा
****
है सहोदर  तो  लखन  सा  पास  तेरे भी यहाँ
चाहता  गर त्याग  है तो राम सा बनकर दिखा
****
आ रहा  है  साथ कोई भी नहीं  तो  क्यों रूदन
खुद  अकेले  ही समूचा  कारवाँ  बनकर दिखा
****
हो  गई  रसहीन  चेटिंङ  फेसबुक  पर  तो बहुत
अब पुरानी चिट्ठियों का सिलसिला बनकर दिखा
****
हैं दुआएँ साथ सब की पृष्ठ बनकर मत अकड़
त्याग कर फैलाव  को तू हाशिया बनकर दिखा
****
चन्द  छाले  पड़ गए तो कोसता क्यों  राह को
है सरल  होना ‘मुसाफिर’ रास्ता बनकर दिखा
****

मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 26, 2015 at 10:02am

आदरणीय लक्ष्मणजी इस पुरअसर ग़ज़ल के लिये दिली बधाई स्वीकार करें शेष चर्चायें तो ही ही चुकी है


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 23, 2015 at 11:16pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , बढिया गज़ल हुई  है , हार्दिक बधाइयाँ ॥ आदरणीय मिथिलेश भाई जी की सलाह भी बहुत सहीं है , खयाल कीजियेगा ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 23, 2015 at 1:49pm

सुझावों और उचित सलाहों के बरअक्स आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल पर हार्दिक बधाइयाँ.

शुभेच्छाएँ.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 23, 2015 at 1:42pm

ल्लाजवाब .आदरणीय  बहुत उम्दा,

Comment by Tanuja Upreti on April 23, 2015 at 1:25pm
सुंदर रचना के लिए बधाई।मिथिलेश जी के संशोधनों ने चार चाँद लगा दिये।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 22, 2015 at 10:42pm

बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है ... दिल से दाद कुबूल फरमाएं 

आदरणीय समर कबीर जी की सलाह से सहमती व्यक्त करते हुए एक निवेदन -

चाँद पानी में  दिखाकर स्वप्न  दिखलाना सहज
बात तब  है  रोटियों  को/का  तू तवा  बनकर दिखा

देख रोम  जलता  रोम देख नीरो  सा  बजा मत बंशियाँ
जो हुए  बरबाद  उनको /उनका आसरा  बनकर दिखा

आ रहा  है  साथ कोई भी नहीं  तो  क्यों रूदन
खुद  अकेले  ही समूचा  कारवाँ  बनकर दिखा.......कारवाँ का...... आँ काफिया ?

हो  गई  रसहीन  चेटिंङ  फेसबुक  पर  तो बहुत...... चेटिंग / चैटिंग 
अब पुरानी चिट्ठियों का सिलसिला बनकर दिखा

सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 22, 2015 at 7:09pm
चन्द छाले पड़ गए तो कोसता क्यों राह को
है सरल होना ‘मुसाफिर’ रास्ता बनकर दिखा॥
लाजवाब, आदरणीय लक्षमण धामी जी , बधाई , सादर।
Comment by Samar kabeer on April 22, 2015 at 3:27pm
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें :-

इस शैर में :-

"कर रहा आलोचना तो सूरजों की देर से
है अगर तुझमें हुनर तो दीप सा बनकर दिखा"

अगर ऊला मिसरा इस तरह करलें :-

"कर रहा आलोचना सूरज की इतनी देर से"

क्यूँकी भाई सूरज तो एक ही होता है |
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 22, 2015 at 12:27pm

बहुत ही लाजवाब रचना और बात भी क्या खूब कही है जो कही न कहीं अनकही है सादर!

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