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अंतिम शब्द

द्वार खुला था

तुम दहलीज़ पर अहम्‌ के जूते उतार

सुस्मित शरद चाँदनी-सी कभी

कभी भोर की प्रथम किरण बनी

बाँहें फैलाए घर के भीतर चली आई

तुमने जिसे मंदिर बनाया

वह आँसू-डूबा उल्लास-भरा

मेरा मन था।

मन पावन था पावन रहा

कब कहा मैंने भगवान हूँ मैं

तुमने मुझको भगवान बनाया

और अब असीम बेरहमी से सहसा

जूतों समेत मेरे सीने पर चल कर

तुम्हारा प्रहार पर प्रहार ... उफ़ !

भीतर नभ में कितने तारे फूटे

कानों में पिस्तौल बन्दूक की ध्वनियाँ

कंपित मन लिए दुख की कथाएँ

बेमाप अकेले में कराह उठा

"हे   रा...म"

-------

-- विजय निकोर

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by vijay nikore on April 27, 2015 at 10:59am

//बहुत सुंदर रचना, सर. दिल को छू जाती है//

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय जितेन्द्र भाई।

Comment by vijay nikore on April 27, 2015 at 10:58am

//बहुत खूब , प्रत्येक पंक्ति से दर्द झलकता है//

ऐसी सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अन्नपूर्णा जी। 

Comment by vijay nikore on April 27, 2015 at 10:56am

रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीया मीना जी।

Comment by vijay nikore on April 27, 2015 at 10:55am

//एक सामयिक घटना को बहुत खूबसूरत शब्द मिले हैं , बहुत मार्मिक रचना हुई है //

आपकी सराहना सदैव मनोबल बढ़ाती है, आदरणीय भाई गिरिराज जी। हार्दिक धन्यवाद।

Comment by vijay nikore on April 27, 2015 at 10:51am

//मार्मिकता लिए जिस प्रकार आप ने शब्दों को अभिव्यक्त किया है वह निस्संदेह दिल को छूती  है..//

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विरेन्दर जी।

Comment by vijay nikore on April 27, 2015 at 10:48am

//बहुत ही सशक्त ,समसामयिक रचना//

आदरणीय हरि प्रकाश जी, रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on April 27, 2015 at 10:44am

आदरणीय भाई शरदिन्दु जी, पाठकों ने इस रचना को ठीक ही समझा है। हालांकि शब्द "हे राम" पूज्य गाँधी जी की पुण्य स्मृति को पटल पर ले आते हैं, यहाँ इस रचना में मैं गाँधी जी को संबोधित नहीं कर रहा था। आपका हार्दिक आभार।

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 26, 2015 at 7:12pm
आदरणीय विजय निकोर जी , आपने इन पंक्तियों //When it enters , it enters silently , when it goes , it bangs all the doors //की कविता का सन्दर्भ जानना चाहा पर खेद है वह मुझे याद नहीं रहा. यह भी याद नहीं कि कब कहाँ इन्हें पढ़ा था था , पर ये पंक्तियाँ सदैव ही उस समय याद आ जाती हैं जब कहीं कोई आस्था, प्रेम या विशवास टूटता है या ध्वस्त होता है, वह चाहे किसी का व्यक्तिगत हो या किसी बड़े महा पुरुष का , किसी गहरे विश्वास का हो या किसी बहुत छोटीसी कोमल भावनाओं का हो। ………… सही भी है विशवास , प्रेम या आस्था का जन्म ( आगमन ) बहुत ही धीरे धीरे शान्ति पूर्ण ढंग होता है , पर जब यह टूटता है तो बहुत शोर के साथ साथ छोड़ता है , जैसे सारे खिड़की दरवाजे शोर के साथ खोल कर कोई जबरदस्ती जा रहा हो …।
आपको यह पंक्तियाँ पसंद आईं , अच्छा लगा , आभार।
Comment by vijay nikore on April 26, 2015 at 6:46pm

//बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति है ....  दिल को छूती प्रस्तुति ...//

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।

Comment by vijay nikore on April 26, 2015 at 6:43pm

//कविता की भावनाओं में खो सा जा रहा हूँ |इस वेदना को अनुभव किया है |इसलिए इस रचना के साथ आत्मसात हो गया //

रचना को आत्मसात करने के लिए, अनुभव करने के लिए, आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सोमेश जी।

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