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शादी की दावत -1 (कहानी )

शादी की दावत -1

स्टेशन से सीधे हम अजय भईया के घर पहुँचे |मड़वा में स्त्रियाँ उन्हें हल्दी-उबटन मल रही थीं |बड़े बाउजी यानि की मानबहादुर सिंह परजुनियों को काम समझाने में व्यस्त थे |बीच-बीच में वे द्वार पर आ रहे मेहमानों से मिलते उनकी कुशल-खैर पूछते और आगे बढ़ जाते |

“अरे सीधे ,स्टेशन से आ रहे हो क्या ?” हमारा समान देखकर शायद उन्हें अंदाज़ा हो गया था |

“जी,हमनें आपस में बात कर ली थी |गाड़ी आने के समय में भी ज़्यादा फ़र्क नहीं था इसलिए हम सब स्टेशन पर ही - -- “बारी-बारी से हमनें उनके चरण-स्पर्श किए और महेश ने ये कथन निवेदित किया |

“अच्छा किया| देखों,तुम्हारे भाई की शादी है और सम्भालने वाला मैं अकेला |कोई कमोबेशी हो तो बुरा ना मानना |”

अरे फूफाजी,काहे शर्मिंदा कर रहे हैं |क्या ये बात हम नहीं जानते हैं ?आप हमारी फ़िक्र छोड़ें और व्यवस्था सम्भालें |”हरीश बोला |

“अगर हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताईये - - -“ सतीश बोल उठा |

“तुम लोग यात्रा करके आए हो |थक गए होगे |नहा-धोकर आराम कर लो |शाम को बारात भी तो करनी है |देखों,नाचने-गाने में कोई कमी-कसर नहीं रहनी चाहिए |”इसके बाद वो किसी और नातेदार की तरफ मुड़ गए |

“अब|” संतोष ने भौहे उचकाते हुए बाकि चारों से पूछा |

“ अब महेश भईइया के घर चलते हैं |”हरीश ने महेश की तरफ देखते हुए कहा |

“आगाज़ ये है तो अंजाम होगा - - -“ सतीश ने मसखरी करते हुए कहा |

अजय भईया महेश के पुश्तैनी सम्बन्धी थे |दोनों के परदादा सगे भाई थे |महेश के दादा ने कलकत्ता में नौकरी करी और गाँव और शहर में अलग घर बनाया |अजय अपने पिताजी के साथ बाग वाली खानदानी हवेली में रहता था जो रख-रखाव के आभाव में खंडर होने लगी थी | महेश का परिवार कलकत्ता बसा था और केवल विशेष मौको पर या जलवायु-परिवर्तन के लिए गाँव आता था |बाकी लोग भी इस कुनबे की रिश्तेदारियों से जुड़े थे तथा हमउम्र होने के कारण एक दुसरे से घुले-मिले थे |महेश के दादाजी  छह भाई थे और सबके मकान आस-पास बने थे इनमें से एक चाचा यही पर रहते थे बाकि लोग अलग-अलग शहरों में बसे थे |

घर में जहाँ-तहाँ अपना बैग पटक सभी लोग गर्द भरी चारपाई पर ही लोट गए और अपनी कमर सीधी करने लगे |

“ ठक-ठक-ठक “ सांकल बजने पर महेश ने दरवाज़ा खोला |

“नमस्ते भईया,अम्मा पानी-भेली भेजीं हैं और कहीं हैं कि आप लोग हाथ-मुँह धोकर घर आ जाएँ |वो चाय और नाश्ता तैयार कर रही हैं |”चुनमुनिया जो कि महेश के ताऊ-दादा की पोती थी ने आकर कहा |

“बहिनी चाची से कहना कि बस चाय भिजवा दें |खाने-वाने की परेशानी ना करें |शादी में आए हैं तो खाना-पीना भी वहीं करेंगे |”महेश ने चुनमुनिया के सिर पे हाथ फेरते हुए कहा |

“वाह रे बैल !चाय तो मिली नहीं वहाँ खाने की बात कह रहे हो -- - - लगता है आज उपवास ही करवाओगे “संतोष ने मुँह बनाते हुए कहा |

“उनसे जो बनेगा करेंगे |पर किसी की इज्जत उछालने से क्या मिलेगा ?”महेश ने बिगड़ते हुए कहा |

“तुम्हारे खानदान में ऐसे ही होता है |जब सपरता नहीं है तो काहे न्यौता भेजे ?”संतोष ने नाराज़ होकर कहा |

सबने बीच-बचाव कर बात को बिगड़ने से रोका |

“हमकों भूख लगा है |किसी पर कुछ खाने को है ?” संतोष बड़बड़ाया

हरीश ने अपने बैग से बिस्कुट का पैक्ट निकालकर उसकी तरफ उछाला और वो कूटूर-कूटूर करके बिस्कुट खाने लगा |

थोड़ी देर बाद चुनमुनिया चाय और पकौड़े रखकर चली गई |पांच मिनट में प्लेट और कप खाली हो गए |

“बस दू-दू पकौड़ा खाने को मिला,इससे तो भूख और जोरिया गई है - - - -किसी से पता करवाते कि खाने-पीने का क्या इंतजाम है उहाँ |”संतोष ने महेश की तरफ देखते हुए कहा |

“पहले नहा-धो लेते हैं |हो सकता है तब तक कोई खाने के लिए बुलाने आ जाए |” महेश ने सुझाव दिया |

एक बजे तक सब नहा-धोकर तैयार हो गए |

“अब !अभी तक तो कोई बुलाने नहीं आया ?” सतीश ने पूछा

“मेरे विचार में बिना बुलाए द्वार पर जाना सही नहीं रहेगा |”हरीश बोला |

इंतजार करते-करते दो बज गए |

“भाई लोगों आस-पास कोई बाज़ार है |वहीं चलते हैं |यहाँ तो भूख से प्राण निकल रहे हैं |”संतोष ने कहा |

“बाज़ार यहाँ से तीन किलोमीटर पर है और वहाँ जाने का कोई साधन यहाँ नहीं मिलेगा |पर गाँव में एक परचून की दुकान है वहाँ मैगी-नमकीन-बिस्कुट मिल सकता है |”महेश ने कहा

“नेकी और पूछ-पूछ |भाई जाकर कुछ लाते क्यों नहीं ?वैसे भी हम तो तुम्हारे पाहुन हैं |”हरीश बोला

“घर में ईन्धन नहीं है |जब तक मैं सामान लेकर आऊँ तुम लोग सामने की तल्लैया वाले बाग से कुछ लकड़ी बीन लाओ |” महेश ने कहा

“भाई ये गाड़ी बिना पेट्रोल के नहीं चलती |तुम लोग सामान लाओ| मैं घर अगोरूँगा |” पेट के बल लोटते हुए संतोष बोला |

लगभग आधे घंटे में सामान इकट्ठा हो जाता है |छत पर पड़ी ईटों को जमकर चूल्हा बनाते हैं और उस पर मैगी पकती है |साथी लोग बाग से बेर भी बीन लाए थे |कुल मिलाकर पेट भरने का प्रबंध हो जाता है |पेट भरकर हम वहीं बिस्तर पर चित्त हो गए |

शाम को गाँव में बजते बाजे और किवाड़ की कुण्डी खड़कने से हमारी नींद टूटती है |

मौलिक एवं अप्रकाशित

                                                                            क्रमशः

 

 

 

 

 

 

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 3, 2015 at 10:27pm

अच्छी लगी यहाँ तक की कहानी आदरणीय सोमेश भाई जी. बधाई

Comment by somesh kumar on March 3, 2015 at 7:46pm

कहानी पढ़ने , पसंद करने और अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए सभी मित्रों का आभार 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 3, 2015 at 6:33pm

प्रिय सोमेश

अगले अंक की प्रतीक्षा है I


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Comment by गिरिराज भंडारी on March 3, 2015 at 5:45pm

आदरणीय सोमेश भाई , कहानी अच्छी चल रही है , उत्सुकता जगाने में कामयाब है ॥ आपको बधाइयाँ ॥

Comment by Hari Prakash Dubey on March 3, 2015 at 5:27pm

सोमेश भाई ,इस बार आपकी कहानी मजबूती से उभर रही है , भाग -२ का इंतज़ार रहेगा ,हार्दिक बधाई आपको ! सादर 

Comment by maharshi tripathi on March 3, 2015 at 4:58pm

इस  सुन्दर और रुचिपूर्ण कहानी पर आपको बधाई आ.सोमेश जी |

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on March 3, 2015 at 9:48am

आदरणीय सोमेश कुमारजीबहुत सुन्दर कहानी.......

शुरू से ही पाठक को बाँध लेती है और अंत तक रोचक बनी हुयी है ......अब आगे जो क्रमश से व्यवधान आ गया है  उसका इंतज़ार है.

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