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चूड़ियाँ (कहानी )

रात के ९ बजे थे |खाना खाकर विनीत बिस्तर पर लेट गया और radio-mirchi on कर दिया-  “चूड़ी मजा ना देगी,/कंगन मजा ना/देगा, तेरे बगैर साजन /सावन मजा ना देगा"

तभी खिलखिलाती हुई मुग्धा ने कमरे में घुसकर ध्यान भंग किया –“ चाचा-चाचा, अदिति दीदी कुछ कहना चाहती है

 “ हाँ बेटा बोल ,” विनीत ने कहा |

“ चाचा मुझे चाची के चूड़ीदान से कुछ रंग-बिरंगी चूड़ियाँ लेनी है वो सहमते हुए बोली |”

विनीत ने अदिति को देखा, एकबार आलमारी की तरफ देखा जहाँ निम्मा का चुड़ीदान रखा था | कुछ देर चुप रहा,लम्बी से साँस ली|फिर अपने पर्स से १०० रु० निकालकर अदिति को देते हुए कहा |गली के नुक्कड़ पर जो चूड़ियो की दुकान है वहां से ले लो |

मना करना विनीत को भी अच्छा नही लगा पर उस चूड़ीदान तथा उसमे रखी रंग-बिरंगी चूड़ियों में जाने कौन सा अकार्षण था कि निम्मा की मृत्यु के बाद उसने उसका सारा सामान बाँट दिया या फिर सामने से हटा दिया |सिवाय उस चूड़ीदान के जो उसी जगह पर रखा था जहाँ उसे निम्मा रखती थी |कांच की उन निर्जीव चूड़ियों और उस कांच के सफ़ेद चूड़ीदान में जाने क्या बात थी कि विनीत उसे हटा नहीं पा रहा था |

 चूड़ियाँ होती तो निष्प्राण हैं पर जब किसी हथेली में सजकर खन–खन की आवाज़ करती हैं तो एक चित परिचित सा संकेत छिपा होता  है | किसी अपने का पास होने का या किसी विशेष को बुलाने का-संकेत |चूड़ियों की इन खनखनाहट में हिफ़ाजत भी है और नजदीकी भी|

बचपन में जब माँ शाम को बाजार सब्जी लेने जाती थी तो विनीत गली से आती –जाती हर चूड़ी की आवाज को ध्यान से सुनता और यह अनुमान लगाने की कोशिश करता कि “माँ,आ रही है या नही |”  ‘खन-खन-खन कर आ रही चूड़ियों की आवाज ,धीरे-धीरे बढ़ती और थम जाती|

विनीत खट से कुण्डी खोल देता और माँ से लिपट जाता |

शादी के बाद विनीत ने इस खन-खन-खन के दुसरे अर्थ को भी जाना |बरामदे में बैठे विनीत को जब नई -नवेली निम्मा की चूड़ियों की खन-खन-खन सुनाई देती तो वह उठकर कमरे में आ जाता |हंसी और खिलखिलाहटो के बीच खन खन खन........|

चूड़ियाँ जो कमज़ोर होती है कांच की होती है और टूटना जिनकी नियति होती है |चूड़ियाँ जो कभी प्यार के भाव में टूटती है तो कभी प्यार के अभाव में | चूड़ियाँ जो कभी समर्पण में टूटती है तो कभी तिरस्कार में | विनीत चूड़ियों के इन सब भाव से परिचित था| अपने ३ साल के वैवाहिक जीवन में उसने चूड़ियों के कई रंग देखे थे और उसके खन खन खन के कई अर्थो को भी जाना था |

सुहागरात के दिन निम्मा की चूड़ियों ने पूरा कमरा गुंजित कर दिया था |प्रेमातुर विनीत ने कलाई को ऐसे पकड़ा कि खन-खन-खन करती कुछ चूड़ियाँ टूट गई |विनीत कुछ बोलता उसके पहले ही निम्मा बोली उठी- ‘कोई बात नही ,चूड़ियाँ तो टूटने के लिए ही बनी है ,चूड़ियाँ चाहे जितनी भी तोड़ लेना पर दिल मत तोड़ना कभी |”

विनीत ने उसके होठों पर हाथ रख दिया और –‘खन-खन-खन |

चौथी रात विनीत ने कहा- “इन चूड़ियों को उतार दो |बाहर तक सुनाई देता है इनका शोर “|

निम्मा ने कहा –“ खाली हाथ अपशकुन होता है, मैं २-२ चूड़ियाँ रख लेती हूँ |”

तब से चूड़ियों की खन-खन कम हो गई और चटकना भी|दसवीं रात को विनीत निम्मा की चूड़ियों से खेल रहा था |निम्मा ने कहा –‘ एक सवाल पूछूँ. मेरी कसम! सच बताना| विनीत ने सहमति में सिर हिलाया |

“क्या शादी के पहले कभी किसी और के साथ- - - ?”

विनीत ने सहज होकर कहा- “हाँ, एक बार| “

निम्मा ने झट से अपना हाथ बढ़ाया और खट से बेड के सिरहाने पर दे मारा |खन-खन करती चूड़ियों के टुकड़े बेड पर और जमीन पर बिखर गये |निम्मा की कलाई से खून आने लगा |वो घृणा–तिरस्कार के भाव से विनीत को देखने लगी और रोने लगी|

विनीत ने उसकी जख्मी कलाई को थामते हुए कहा –“ये शादी के पहले की बात है, तब कहाँ मेरे नाम की चूड़ियाँ पहनी थी तुमने|पर अब इन कलाई और इनकी चूड़ियों के अलावा कोई नहीं |”

दोनों की ऑंखें मिली और फिर “खन-खन-खन| “

चूड़ियाँ सिर्फ प्यार में ही नही टूटती |वो कर्मठता में, निपुणता में और कभी कभी अहंकार में भी टूट जाती हैं |कलाईयां जख्मी हो जाती है और दिल में चटक पड़ जाती है |कपड़े धोते हुए,मसाला पिसते हुए कई बार मैचिंग के चक्कर में निम्मा चूड़ियाँ तोड़ लेती थी |मैचिंग की बिंदी चूड़ी और साड़ी उसे बहुत पसंद थे| लगभग हर १५ वें दिन वो गली से गुजरने वाले चूड़ीहार को रोककर अपनी पसंद की चूड़ियाँ खरीदती और कभी-कभी विनीत को कहती –“ सुनो आज इमली रंग की चूड़ियाँ लेते आना |”और फिर सुबह-शाम वही ‘खन-खन’|

एक बार विनीत ने कहा -"यार ,ये तुम्हारी चूड़ियाँ तो तुम्हारी डाईट से भी ज़्यादा महंगी हैं !"

"हूँ s ,मेरी चूड़ियों के बारे में कोई कमेन्ट नहीं ,बाकि कहो तो डाईटिंग पे चली जाऊँ ,वैसे भी सिंदूर और चूड़ी यही तो सुहागिनों की निशानी है |जब मरूं ना ,तो मेरे साथ खूब सारी चूड़ियाँ रख देना |"

विनीत ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया |बच्चों की तरह मचल उठा |जैसे मनपसन्द खिलौना टूटने या खो जाने कि आशंका से बच्चा मचल उठता है |वैसे भी कांच की चूड़ियों और जीवन में क्या फ़र्क है ,दोनों सुकोमल दोनों रंग-बिरंगे और दोनों ही इतने नाजुक कि एक ठोकर में दरक जाएँ ,टूट जाएँ ,बिखर जाएँ |

चूड़ियाँ स्त्री-सुहाग की निशानी है और स्त्री एक परिवार का सुहाग |बिना चूड़ी स्त्री-कलाई जितनी उदास लगती है उससे कही ज़्यादा उदास होता है एक परिवार अपनी स्त्री को खो कर |

लगभग शादी के डेढ़ साल बीत गए थे |निम्मा डेढ़ महीने पहले ही मायके से आई थी |और वह दोबारा से जाने को जिद्द कर रही थी|लगभग एक हफ़्ते से बहस हो रही थी |उस रोज निम्मा ने कहा –“१० दिन में लौट आउंगी,जाने दो |” विनीत ने गुस्से से कहा –“ शादी खुद बैठकर रोटियां पकाने के लिए नही की है |जाने में खर्च भी तो होता है |”

“तुम्हारी नौकरानी नही हूँ!”गुस्सा होते हुए निम्मा ने कहा और अपनी हथेली दीवार और मार दी | खन-खन-खन करके चूड़ियाँ फर्श पर बिखर गईं |विनीत ने भी उसकी कलाई पकड़ी और बची हुई चूड़ी को दबाते हुए बोला-“बहुत शौक है ना तुम्हें चूड़ियाँ तोड़ने का,लो तोड़ दी मैंने अपने नाम की बाकी चूड़ियाँ, जाओ और वापस मत आना |

एक की हथेली जख्मी थी,एक की कलाई|पर दिल दोनों के चटक गए थे |विनीत चुपचाप दफ्तर चला गया | शाम को निम्मा जब चाय लेकर आई तो जख्मी कलाई रंग-बिरंगी चूड़ियों से भरी थी| “ माफ़ कर दो ,मैं गलत थी,प्लीज़ ,ऐसी जिद्द  दोबारा नही करूंगी|ये चूड़ियाँ कैसी लग रही है?|” और विनीत भी मुस्कुरा पड़ा और फिर- ‘खन-खन-खन |

‘रविश’ के जन्म से  निम्मा बीमार चल रही थी | ना बीमारी पकड़ में आ रही थी और ना दवाईयां असर कर रही थीं| मसाला मिक्सी में,कपड़े वाशिंग मशीन में,यंत्रवत संगीत ने सुकुमार झंकृति को प्रतिस्थापित कर दिया था |अब वो सुमधुर संगीत ना था विवशता का कानफोडू शोर था|संगीत लय और गति के तालमेल की संतति है और यहाँ यह निम्मा से जुड़ी थी| पर निम्मा अब बिस्तर पर पड़ी रहती और एकाध बार रविश के रोने पर करवट लेती और तभी मंद-उदास चूड़ियाँ भी कराहती हुई धीमी आवाज़ में खsन करके खामोश हो जातीं |

एक सुबह जब मम्मी चाय बनाकर लाईं तो विनीत निम्मा को जगाने लगा |वो नही उठी |उसने उसे जोर से हिलाया |शरीर हिला,कलाई हिली,चूड़ियाँ खनकी पर- - -|विनीत बेसुध सा बैठ गया |ऑंखें पत्थर सी हो गई. आवाज रुक गई, चूड़ियाँ खनक नही रही थी |

थोड़ी देर में सारे रिश्तेदार आ गए |शाम तक कुछ भी ना था |चूड़ियाँ,कपड़े,सब श्मशान के एक कोने में डाल दिए गए| तेरहँवी की रात,आखिरी संस्कार, सुहागिन मृत आत्मा के लिए श्रंगार का सामान निकालाना  है|

“अरे चूड़ियाँ कहाँ है? कहा तो था कि चूड़ियाँ ले लेना |”माँ ने पिताजी की तरफ़ देखते हुए कहा

 “माँ निम्मा के चूड़ीदान में तो है|” विनीत ने बोला

 “हाँ-हाँ वो तो और अच्छा है|” बुआ ने कहा|

विनीत ने चूड़ीदान में से हर रंग की एक-एक चूड़ी निकाली और श्रृंगार की टोकरी में रख दी | “ इतनी चूड़ियाँ !“

“माँ उसे चूड़ियाँ बहुत पसंद थी |”कहते हुए विनीत की आँखे भर आईं और माँ भी अपना मुहँ ढक वहाँ से चल दी |

तब से रखा वो चूड़ीदान और उसमे रखी रंग-बिरंगी चूड़ियाँ वहीं पड़ी है |कभी-कभी नींद ना आने पर विनीत चुपके से अलमारी खोलता है और और उसमे रखे चूड़ीदान को देखता है तो- “ खन-खन-खन ....”

                                  

सोमेश कुमार (२९/०५/२०१३)(मौलिक एवं अप्रकाशित )

                                                                                                  

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Comment by sharadindu mukerji on February 3, 2015 at 3:40pm
बहुत ही मार्मिक और सु-रचित रचना यद्यपि आदरणीय सौरभ जी के दृष्टिकोण (इस रचना के बारे में) से एकमत हूँ.
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 26, 2015 at 7:24pm

आदरणीय सोमेश भाई जी. बहुत भावपूर्ण कथा प्रस्तुत की आपने. सच!  प्रेम की नजदीकियों को धीरे-धीरे अहंकार, दूरियाँ बढाकर आमने-सामने खड़ा कर देता है.

बहुत-२ बधाई आपको व् गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें

Comment by somesh kumar on January 26, 2015 at 6:49pm

गिरिराज भंडारी सर ,आपका आशीष  रचना कर्म को नई उर्जा और दिशा देता है |इसी प्रकार ये स्नेह बनाएँ रखें और उचित मार्गदर्शन भी देते रहें |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 26, 2015 at 6:18pm

आदरनीय सोमेश भाई , बहुत भाव पूर्ण कथा कही है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by somesh kumar on January 26, 2015 at 4:30pm

शिज्ज भाई जी एवं कांता जी रचना पर प्रतिक्रिया देने हेतू धन्यवाद |Saurbh Pandey सर आपकी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया का धन्यवाद |जैसा कि आप ने इंगित किया किया के ये कहानी ,कहानी ना होकर डायरी विधा अधिक लगती है इससे कुछ दुविधा में आ गया हूँ |वैसे मैंने अमृता प्रीतम की कुछ कहानियाँ इसी विधा में पढ़ी थीं जो गद्य कोष में भी उपलब्ध हैं |फिर भी अगर लगता है कथा -आलेख का मिला-जुला रूप होने से कहानी कमज़ोर हुई है तो मार्गदर्शन और सुधार कि अपेक्षा है |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 26, 2015 at 8:47am

अपनी भावनाओं को आपने क्या खूब शब्दों का रूप दिया है बहुत बहुत बधाई। 

Comment by kanta roy on January 26, 2015 at 8:40am
जीवन रस से सराबोर , माँ के हाथ की चुडियों की खनक से जिस जीवन में ममता का संचार हुआ वह पत्नी के हाथों की चुड़ियाँ खनकती हुई सतरंगी सपनों का संसार बनी । दुख ओर सुख दोनों की प्रतीक इन चुडियों की कथा अप्रतिम सौंदर्य लिए हुए थी ।आ. सोमेश कुमार जी इतनी सुंदर चुडियों की खनक को रचना में खनकाने के लिए बधाई आपको ।आभार

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 26, 2015 at 1:34am

आपकी इस प्रस्तुति से हार्दिक भाव बहते चले आये हैं. लेकिन इसे प्रस्तुत करने के क्रम में निर्णय करना था कि इसे कथा के रूप में रखना है या आलेख के रूप में. कथा और आलेख का मिलाजुला रूप संयत और संतुलित नहीं हो सकता है. औपन्यासिक कृतियों में अवश्य मूल कथ्य के बीच-बीच में लेखक के मंतव्य पिरोये होते हैं. किन्तु कथाओं में अक्सर ऐसा नीं होता. वैसे, यह प्रस्तुति ’डायरी लेखन’ विधा का एक सुन्दर उदाहरण है.

बहरहाल, आपके प्रयास के लिए हार्दिक धन्यवाद, भाई सोमेशजी.

Comment by somesh kumar on January 25, 2015 at 5:07pm

आप सबकी प्रतिक्रियाओं और अनुमोदन के लिए तहे दिल से बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 24, 2015 at 7:10pm
सुन्दर प्रयास। आदरणीय सोमेश जी, सादर।

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