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बंद खिडकियों से

झांकता

प्रकाश

चारो ओर स्याह-स्याह

मुट्ठी भर

उजास

 

टूटी हुयी

गर्दन लिए

बल्ब रहे झाँक

ट्यूब लाईट

अपना महत्त्व

रहे आंक

 

सर्र से

गुजर जाते

चौपहिया वाहन

सन्नाटा

विस्तार में

करता अवगाहन

 

तारकोली

सड़क सूनी

रिक्त चौराहे

सर्पीली राहें

मानो  

मौत की बाहें 

 

फ़िल्मी गीत

कोई लोफर

गाता

गली से निकलता

मुख, आँख, नाक

से धुआं

उगलता

 

हवा

उदास प्रेमी सी

ठंढी बेचैन

अँधेरा मूक

न तो नैन

ना ही बैन

 

टेम्पो

अहरह खींचते

सन्नाटे के कान  

श्मसान

बना हुआ

फ़ैला सुनसान

 

बाहर से

है शांत कितनी

शहर की

ये रात

ऊंची भव्य

इमारतो में

जागती है रात

 

पवन बधिर

सुनता है

दूर कही चीख

कोई

कही मांगता है

जान की भीख 

 

नदी

के पुल पर

रुकती एक कार

खुलता है द्वार

चंद हाथो में

एक बोरा सवार

रेलिंग तक

जाता

होता छपाक ---

रजनी अवाक !

 

घर से

या किसी

नर्सिंग होम से

निकले नाजायज बाप

मरघट के डोम से

चोरी से

किसी मोटर

साईकिल के पीछे

हाथो में

समेटे कुछ

झाड़ियों के नीचे  

डाल

हाथ खींचे

 

दूर कहीं

मर रही

नवजात आवाज

ठंढ में ऐंठा शिशु

मृत्यु का
सजे साज

हो

गयी कोई माता

शायद कुमाता

अहह विधाता !

 

लुट रहा

अंधेरो में

कहीं 

उजला सतीत्व

ऊंची शान

ऊंची

मर्यादा का प्रतीत्व

 

इसी समय

कही होते

स्याह व्यापार

कलुष तिजोरियां

तस्करी

सरकारी सुरक्षा

काला बाजार 

 

एक मानो

नया जग 

सहसा क्रियमाण

बंद कई

कमरे

कई सांसे, उच्छ्वास

कुटिल

सत्य के प्रमाण

 

हाहाकार

मौन

थका हुआ

वात

हलचल के बीच

शांत

शहर की

ये रात  

शहर की ये रात !

(मौलिक/अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 19, 2014 at 11:11am

आ० सौरभ जी

आपका  शत शत आभार i सादर i


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 16, 2014 at 11:33pm

शहर की रात विस्मयी ही नहीं रहस्यमयी भी हुआ करती है. इस विन्दु को आपने साझा कर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी है, आदरणीय गोपाल नारायनजी..
सादर बधाइयाँ

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 4, 2014 at 11:04am

दादा श्री

आपका बहुत बहुत आभार i आपका स्नेह यूँ ही मिलता रहे i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 4, 2014 at 1:54am
आदरणीय, बहुत सजीव चित्रण और बहुत प्रभावशाली संप्रेषण हुआ है आपकी भावनाओं का इस चमकप्रद रचना में....काश हम सभी के पास कान होते शहर की रात के इस गुपचुप शोर को सुनने के लिए....सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 25, 2014 at 3:39pm

राम शिरोमणि जी आपका आभार i  सादर  i

Comment by ram shiromani pathak on November 25, 2014 at 12:22pm
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय
Comment by vijay nikore on November 24, 2014 at 9:15am

पढ़ता गया, और शहर का नज़ारा खुलता-सा गया।

बहुत ही सशक्त रचना के लिए बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 24, 2014 at 6:35am
आदरणीय डॉ० गोपाल नारायण जी , शहर के स्याह सन्नाटे और उसके साये में पनपते काले कारनामों को उजागर करते हुए एक बहुत सफल रचना है. महानगरों की शोरगुल भरी जिंदगी में तो और भी बहुत से धोखे हैं , हर पल हर जगह धोखे ही धोखे हैं।
फिर भी जीता है आदमी ,
चौकन्ना है आदमी , पर हर पल ,
दायें बाएं ठगा जाता है आदमी ,
कोई जिंदगी नहीं है महानगरों में ,
कैद में है आम आदमी , और
भाग भी नहीं पाता है आदमी ,
ऊपर से खुश दिखनेवाला ,
सच में बहुत दुखी है आदमी।

सादर , बहुत बहुत बधाई इस कीमती रचना के लिए।

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"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
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