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मैं कफ़न में लिपटी इक तस्वीर मढ़ रहा हूँ

मैं कफ़न में लिपटी इक तस्वीर मढ़ रहा हूँ,

हुकूमत के मुंह पर इक तमाचा जड़ रहा हूँ । 

भूख की कलम से, मैं पेट के पन्नों पर,,

बेबस गरीबी की इक कहानी गढ़ रहा हूँ । 

कानून क्यों है बेबस?यही खुद से बूझते मैं,

इंसाफ की डगर पर ऐड़ी रगड़ रहा हूँ । 

आ जाएगी अमन की दुल्हन मेरे वतन में,

इसी आस में उम्मीदों की घोड़ी चढ़ रहा हूँ । 

इंक़लाब के सफर में ज़ज़्बों की पोटली ले,

हिम्मत की तेज़ आती गाड़ी पकड़ रहा हूँ । 

बारिश सुकून-ए-राहत, बेवक़्त हो बेमौसम,,

यही आसमाँ को कहने शिद्दत से बढ़ रहा हूँ । 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 3, 2014 at 10:00am

भूख की कलम से, मैं पेट के पन्नों पर,,

बेबस गरीबी की इक कहानी गढ़ रहा हूँ । -----बहुत मार्मिक और सार्थक भाव रचना के लिए बधाई 


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Comment by गिरिराज भंडारी on November 1, 2014 at 8:18pm

कानून क्यों है बेबस?यही खुद से बूझते मैं,

इंसाफ की डगर पर ऐड़ी रगड़ रहा हूँ  ----------- बहुत सुन्दर , आदरनीय ग़ज़ल के लिये और इस शे र के लिये बधाइयाँ ।

Comment by ajay sharma on November 1, 2014 at 12:17am

wah wah rachna 

Comment by Sushil Sarna on October 31, 2014 at 11:52am

मैं कफ़न में लिपटी इक तस्वीर मढ़ रहा हूँ,
हुकूमत के मुंह पर इक तमाचा जड़ रहा हूँ । … वर्तमान सन्दर्भ में सुंदर ग़ज़ल … हार्दिक बधाई

Comment by Saarthi Baidyanath on October 30, 2014 at 9:04pm

इंसाफ की डगर पर ऐड़ी रगड़ रहा हूँ । ...लाजवाब ! बहुत बढ़िया जी !

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