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जाने किस तानेबाने मे उलझी, मैं अपनी खिड़की पे खड़ी थी।
इतने में मैंने देखा - एक सदाबहार का पौधा जो कि खिड़की की चौखट और दीवार की संद से निकल कर लहलहा रहा था ।
उसके हरे चिकने पत्ते प्याजी रंग के फूल मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे, लेकिन दीवार में बरसात का पानी मरेगा , ये सोच कर मैंने उखाड़ने के लिये हाथ बढ़ाया ही था, कि नीचे गली से आवाज आई-
"पौधे ले लो पौधे"
मैंने देखा-तो ठेले पर देसी गुलाब, इंगलिश गुलाब ,बोगन बेलिया ,एरोकेरिया पाम की विभिन्न किस्में रखी थी।
ये इंगलिश गुलाब कैसे दिया?
"सौ रुपये का।"
"हूँऽऽ !और ये देसी बाला मैंने पूछा?"
"सत्तर का ।"
"बडा मंहगा बता रहे हो। इसमें करना ही क्या होता है, केवल कलम ही तो लगानी होती है।"मैने धौंस जमाते हुये कहा-
" हाँ लेकिन इतने दिन इसकी परबरिश खाद-पानी, देख-रेख ,सुबह-शाम सींचना इसका कुछ नही।"
मैने हंसते हुये कहा ; "अच्छा तो तू बेटे का बाप है ।"
"और मैं अनचाही बेटी जिसे बोने से लेकर सीचने तक तुमने कुछ नहीं किया हां आज उखाड़ कर फेंक जरूर रही हो।" फुसफुसाहट सदाबहार की थी ।
मेरा चेहरा पीला पड़ गया।
डाॅ संध्या तिवारी (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 20, 2014 at 10:32pm

यह तो इंसान की फितरत है. अच्छी रचना ,आदरणीया डा.संध्या जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by किशन कुमार "आजाद" on October 20, 2014 at 10:28pm
बहूत सुन्दर ।
Comment by Dr.sandhya tiwari on October 20, 2014 at 4:29pm
आदरणीय सोमेश जी, धन्यवाद!आपका लेखन भी मर्म को स्पर्श करता है।
Comment by Dr.sandhya tiwari on October 20, 2014 at 4:25pm
आदरणीय गोपाल सर ,आभार आपका
Comment by Dr.sandhya tiwari on October 20, 2014 at 4:18pm
आदरणीय विनय सर , आपका कथन सिर आँखो पर
Comment by somesh kumar on October 20, 2014 at 3:59pm

sunder rchna ,jo hme shjtase mile uska mol nhi jante jb kimat dete hain to ahmiyat smjh aati hai 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 20, 2014 at 3:58pm

आदरणीय संध्या जी

 

 ''मै अनचाही बेटी ----''  ने इस कथा मे चार चाँद लगा दिए i  कन्या भ्रूण  हत्या का सन्दर्भ उजागर सा हो गया i दिल से बधाई i

Comment by विनय कुमार on October 20, 2014 at 1:43pm

बहुत खूब , बढ़िया कहानी..

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